शैक्षिक पुनर्वास से भूकंप पीड़ितों की पीढ़ी को बचाने की संतुष्टि

भारतीय जैन संगठन के संस्थापक शांतिलाल मुथा द्वारा दै. ‌‘आज का आनंद" से बातचीत में जानकारी

    05-Oct-2025
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30 सितंबर, 1993 को किल्लारी (लातूर जिला) में एक भयंकर भूकंप आया. किल्लारी भूकंप की कड़वी यादों और शैक्षिक पुनर्वास परियोजना को 32 साल पूरे हो गए हैं. उस आपदा के बाद, भारतीय जैन संगठन के संस्थापक शांतिलाल मुथा वहां से 1,200 बच्चों को पुणे लाए और उनका शैक्षणिक पुनर्वास किया. भूकंप में अपना सब कुछ गंवाने वाले बच्चे पुणे आए और उनके जीवन में एक नया अध्याय शुरू हुआ. इसी संदर्भ में, विशेष संवाददाता स्वप्निल बापट द्वारा शांतिलाल मुथा के साथ एक साक्षात्कार.

किल्लारी में भूकंप और शैक्षिक परियोजना के 32 वर्ष हुए पूरे  
 
 'उन' बच्चों में सामाजिक जागरूकता के बीज बोने में सफलता
किल्लारी भूकंप आपदा में हजारों लोग मारे गए थे. हम अनाथ और बेघर बच्चों को पुणे लाए और उन्हें शिक्षित किया. आज, उनमें से अयादातर सुशिक्षित हैं और विभिन्न क्षेत्रों में काम कर रहे हैं. वे अपनी नौकरियों और पेशों में अच्छा काम कर रहे हैं. लेकिन, मुझे लगता है कि इससे भी अयादा महत्वपूर्ण यह है कि हम उन सभी में से सोशल एजेंट्स तैयार करने में कामयाब रहे. उनमें सामाजिक कार्य, एक-दूसरे की मदद करने और सामाजिक जागरूकता के बीज बोए गए हैं. इसका स्वरूप अभी छोटा लग सकता है, लेकिन मुझे लगता है कि इस काम के जरिए हमने एक ऐसी पीढ़ी तैयार की है जो समाज के लिए सोचती है, यह बात बेहद महत्वपूर्ण और जशरी है. शांतिलाल मुथा, संस्थापक, भारतीय जैन संगठन, मोब.- 9823029252
 

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 मैं उन बच्चों की स्थिति से जुड़ गया
 मैं बीड़ जिले के डोंगरकिन्ही (पाटोदा तालुका) के एक बहुत छोटे से गांव से आता हूं, जिसकी आबादी मात्र 500 है. मैं छोटे गांवों या ग्रामीण इलाकों की समस्याओं से अच्छी तरह वाकिफ हूं. स्वाभाविक रूप से, जब मैं ऐसे आपदा प्रभावित बच्चों को देख रहा था, एक तरफ उन्हें सहारा देने की कोशिश कर रहा था, तो मैं उनकी स्थिति से जुड़ गया. चूंकि मेरे इरादे नेक थे, इसलिए मैं किसी भी मुश्किल में नहीं फंसा. लोगों ने मुझ पर भरोसा किया और मैंने उसे बनाए रखा. मैं हमेशा अल्पकालिक योजनाओं के बजाय दीर्घकालिक समाधानों के बारे में सोचता हूं, क्योंकि वे योजनाएं अयादा प्रभावी, कुशल और सफल होती हैं.
गुजरात भूकंप के बाद 100 दिनों में 368 स्कूल बनाए
गुजरात भूकंप के बाद, मैंने 13वें दिन वहां एक स्कूल बनवाया और उसका उद्घाटन किया. इस प्रकार, मात्र 100 दिनों में गुजरात में 368 स्कूल बनाए गए. क्योंकि उन बच्चों की शिक्षा की भाषा अलग थी, इसलिए उन्हें महाराष्ट्र लाना संभव नहीं था. तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने ये सभी स्कूल गुजरात सरकार को सौंप दिए. चूंकि मैं लगभग 1 लाख 20 हजार बच्चों को पुणे नहीं ला सका, इसलिए मैंने उन्हें वहां स्कूल भेजने की व्यवस्था की. अंडमान और निकोबार में, मैंने 37 द्वीपों में से प्रत्येक पर स्कूल और अस्पताल बनवाए हैं. 
 
 हमें इसे एक तरह से वरदान मानना चाहिए
जिन बच्चों को हम आपदा पीड़ितों के रूप में पुणे लाए थे, उनमें अनेक गुण थे. उनमें अनेक कौशल थे. इस पुनर्वास कार्य के माध्यम से, हम उनकी क्षमताओं को सही अवसर प्रदान कर पाए. एक तरह से, इसे एक अवसर या एक वरदान कहा जा सकता है. क्योंकि, अगर हम उन बच्चों को पुणे नहीं लाते और उन्हें शिक्षा प्रदान नहीं करते, तो कोई भी उनकी क्षमताओं को पहचान नहीं पाता. शायद, जिस गांव में वे बच्चे रहते थे, वही वह जगह होती जहां वे अपना भविष्य बिताते. लेकिन, आपदा के बावजूद, उन बच्चों को बाहर जाने का अवसर मिला और उनकी क्षमताओं और कौशल को बाहरी दुनिया में जगह मिली.
 
 
  प्रश्न - किल्लारी में एक भयंकर भूकंप आया और आप अपने कार्यकर्ताओं के साथ आपदा पीड़ितों की मदद के लिए वहां पहुंचे. उस समय की वास्तविक स्थिति क्या थी और आपको किन चुनौतियों का सामना करना पड़ा..?

 जवाब :
जब किल्लारी और उसके आसपास भूकंप आया, मैं और हमारे कार्यकर्ताओं ने उसी दिन से काम शुरु किया. सास्तूर में रहते हुए, हम प्रतिदिन 10,000 लोगों को भोजन बांट रहे थे. सैकड़ों लोग मारे गए थे. कुछ घरों में कोई भी जीवित नहीं बचा था. कुछ घरों में केवल बच्चे ही जीवित बचे थे. जहां भी देखो, केवल विनाश और शोक ही दिखाई दे रहा था.जब मैंने सुबह भूकंप की खबर सुनी, मैं पुणे में था. मैंने अपने भारतीय जैन संगठन के कार्यकर्ताओं को तुरंत मदद के लिए जाने का निर्देश दिया. आपदा बहुत बड़ी थी. स्वाभाविक रूप से, मदद के लिए एक बड़ी योजना बनानी पड़ी. कई लोगों से बात करने, संसाधन जुटाने और योजनाएं बनाने के बाद, मैं दोपहर में पुणे से सीधे बार्शी के लिए रवाना हुआ. जैन समुदाय हमेशा मदद के लिए सबसे आगे रहता है. इसलिए, हमने वहां के लोगों के सामने आए इस संकट को अपने सामने आए संकट के रूप में देखते हुए, यथासंभव सेवा करने की योजना बनाई. हम यह मानकर योजना बना रहे थे कि उस क्षेत्र में बिजली नहीं होगी, बारिश और अन्य कठिनाइयां होंगी. इसलिए हम एक जनरेटर ट्रक, बड़े टेंट लगाने के लिए सामग्री और खाना बनाने के लिए एक रसोइया लेकर पुणे से निकले.जब राहत कार्य चल रहा था, तो पहले चार-छह दिनों की स्थिति को देखते हुए, मुझे लगता रहा कि इस क्षेत्र की एक पीढ़ी भूकंप का शिकार हो गई है, और यह डर बना हुआ था कि अगली पीढ़ी मनोवैज्ञानिक सदमे का शिकार हो सकती है. हमें इस पीढ़ी को बचाने के लिए कुछ भी करना चाहिए. स्वाभाविक रूप से, हमें इस भूकंप आपदा से बचे बच्चों को पुणे लाना चाहिए, और उन्हें इस मनोवैज्ञानिक सदमे से बाहर निकालना चाहिए, यही विचार मेरे मन में घर कर गया.

प्रश्न आपदा के समय, भोजन, कपड़े और घरेलू सामान के दान को प्राथमिकता दी जाती है. लेकिन, आपने भोजन दान के साथ-साथ शिक्षा पर भी जोर दिया. क्या इसकी कोई ख़ास वजह है..?

जवाब :
हम सास्तूर नामक एक गांव से राहत कार्य कर रहे थे. वहां मैं कई बातों को करीब से देख रहा था. अगर कोई संकट आया है, तो मैं यह भी अनुमान लगा रहा था कि भविष्य में और कौन-कौन से संकट आ सकते हैं. यहीं से मेरे मन में दीर्घकालिक समाधानों का विचार आया. मैंने देखा कि हर दिन राहत केंद्र में अनगिनत बच्चे आ रहे थे. जब राहत सामग्री से भरे ट्रक आते, तो वह उनके पीछे दौड़ पड़ते. उन्हीं बच्चों के सामने भूकंप में मारे गए लोगों के शवों को अंतिम संस्कार के लिए ले जाया जा रहा था. मुझे लगा कि इन सबका उन बच्चों के मन पर जशर बुरा असर पड़ रहा होगा. क्योंकि, उन बच्चों को दिन-रात यही तस्वीर दिखाई देती रहेगी. अगर अगले दो-तीन साल तक स्कूल नहीं बना, घर नहीं बना, तो वे बच्चे क्या करेंगे... यही सवाल मंडरा रहा था. खासकर गांवों में, एक बार स्कूल छोड़ दिया, तो अयादातर हमेशा के लिए स्कूली शिक्षा बंद ही होने की संभावना होती है. तभी मेरे मन में यह सवाल उठने लगा कि अगर भूकंप ने एक पीढ़ी को मार डाला है, तो क्या दूसरी पीढ़ी इस सदमे से तबाह हो जाएगी..? मुझे एहसास होने लगा कि उन बच्चों का भविष्य खतरे में है.

प्रश्न - एक विचार मन में आना और उसे साकार करना, यह सफर या यह प्रक्रिया बहुत बड़ी है. आज आप इसे कैसे देखते हैं..?
जवाब :
तत्कालीन मुख्यमंत्री शरद पवार रोज हमारे राहत केंद्र में आते थे. वे रोज हालात का मुआयना करते थे और सुझाव देते थे, मांगते थे. मैं उनसे दो-तीन दिन तक रोज इसी एक विषय पर बात करता था कि, साहब, हमें इस अगली पीढ़ी को बचाने के लिए कुछ भी करना चाहिए. ऐसी आपदाओं में पवार साहब जैसे दूरदर्शी नेता का अनुभव अमूल्य था. वे मेरी बात और योजना समझते थे, लेकिन वे इस बारे में सोच रहे थे कि इन सबको नियमों और मौजूदा हालात में कैसे ढाला जाए. मैंने कहा, साहेब, मेरे पास बुनियादी सुविधाएं नहीं हैं, लेकिन इच्छाशक्ति जशर है. मुझ पर भरोसा करके देखिए. कुछ अधिकारी मेरी योजना के ख़िलाफ थे, क्योंकि, भूकंप प्रभावित इलाकों से सैकड़ों बच्चों को पुणे ले जाने में जोखिम था. अगर इसमें कुछ अच्छा या बुरा होता है, तो सरकार को दोषी ठहराया जाएगा, यही उनका मुद्दा था. हालांकि, मैं वहां के सभी बच्चों को पुणे लाने पर अड़ा था.

प्रश्न - आपने बच्चों को पुणे लाने की इच्छा जताई थी. लेकिन, कौन से महत्वपूर्ण प्रश्न थे..?

जवाब :
पहला प्रश्न था, इन बच्चों को पुणे में कहां रखा जाएगा.. उन्हें कितने समय तक रहने की व्यवस्था की जाएगी और फिर अगला प्रश्न था, उनकी शिक्षा का क्या होगा..? दरअसल, उस समय मेरे पास किसी भी प्रश्न का उत्तर नहीं था, लेकिन मेरा दृढ़ निश्चय कायम था. ऐसी स्थिति में भी, जब मेरे पास न जमीन थी, न भवन, न स्कूल, न अनुमति, पवार साहब ने मेरी इच्छा को पहचाना और इस पहल की अनुमति दी. स्वाभाविक रूप से, अगले रास्ते अपनेआप खुल गये. उस समय, पवार साहेब ने इस मुद्दे पर वरिष्ठ पत्रकार विजय कुवलेकर, डॉ. मोहन अगाशे, पी. जी. वैद्य जैसे 5-7 लोगों की एक समिति गठित की. उन्होंने मेरी बात समझी और भूकंप प्रभावित बच्चों को पुणे लाने के लिए सहमत हो गए और भूकंप के मात्र 21वें दिन, मैं 1200 बच्चों को लेकर पुणे पहुंचा.

प्रश्न बच्चों को पुणे में लाना जितना मुश्किल था, उन्हें इस शहर और इसके माहौल की आदत डालना उससे भी अयादा मुश्किल था. उनके लिए यहां रहना और पढ़ाना भी एक चुनौती थी. आपका इस बारे में क्या निरीक्षण रहा..?

जवाब :
जिन भूकंप प्रभावित बच्चों को मैं पुणे लाया था, उन्होंने अपने जीवन में कभी पुणे नहीं देखा था. मेरा एक निर्माण कार्य उस समय आत्मनगर, पिंपरी-चिंचवड़ में चल रहा था. मैंने उन बच्चों को वहां की दुकानों और घरों की अलग-अलग मंजिलों पर रखा. वे सभी रात 8 बजे नीचे आ जाते थे. क्योंकि, उन्हें भूकंप का डर था. लेकिन, धीरे-धीरे सभी उस सदमे से उबर गए. कई स्वयंसेवी शिक्षक उन्हें पढ़ाने के लिए आगे आए.संत तुकाराम नगर (पिंपरी-चिंचवड़) में मनपा का एक स्कूल बनकर तैयार हो गया. हमने इसे किराए पर लिया और बच्चों को वहां स्थानांतरित कर दिया गया. उसके बाद, हमने वेिश बैंक से संपर्क कर बुनियादी सुविधाओं के साथ भारतीय जैन संगठन का यह शैक्षिक पुनर्वास केंद्र वाघोली में शुरू किया. यह देश का एकमात्र ऐसा केंद्र है जहां केवल आपदा प्रभावित बच्चे ही शिक्षा प्राप्त करते हैं.

प्रश्न इस पूरी यात्रा में अब पीछे मुड़कर देखें तो आपको कैसा लगता है, बच्चों का बदला हुआ जीवन, कौन सी चीजें आपको सबसे अयादा प्रभावित करती हैं..?

 जवाब :
आज जब मैं इन बच्चों को देखता हूं, उनका विकास देखता हूं, उनकी प्रगति देखता हूं, तो मुझे एक अलग तरह की संतुष्टि मिलती है. मैं इन बच्चों को देखता हूं जो एक आपदा से उबरकर दूसरों के संकट के समय मदद के लिए दौड़ रहे हैं. मैं इन बच्चों को हर जगह ले गया हूं, गुजरात के भूकंप में, जम्मू-कश्मीर के भूकंप में, बिहार की बाढ़ में, महाराष्ट्र के सूखे में, अंडमान की सुनामी में भी. ये बच्चे अपने गांव के लिए पानी लाने में अपना श्रमदान करते हैं. यह एक अग्रणी कार्य है. ये बच्चे अब सोशल एजेंट्स बन चुके हैं. वे देश की प्रगति के प्रति समर्पित हो गए हैं. यह एक लंबी यात्रा है. हालांकि उस भूकंप और राहत कार्य को 32 साल हो चुके हैं, लेकिन पहले पांच-सात साल इन बच्चों की शिक्षा में बीते. अगले पांच-सात साल उन्होंने अपने-अपने क्षेत्रों में अपने करियर को आगे बढ़ाया. यानी, उन बच्चों का वास्तविक कार्य जीवन केवल दस-बारह साल का है. लेकिन, वे ही हैं जो आज हर जगह सामाजिक कार्य कर रहे हैं. संक्षेप में, हमने सिर्फ शिक्षा ही नहीं दी, बल्कि लोगों का निर्माण भी किया है. हमने उस पीढ़ी को गढ़ने की कोशिश की है. जब मैं इन बच्चों को पुणे लाया था, तो मैंने सोचा भी नहीं था कि ये बच्चे इतना कुछ कर पाएंगे. उस समय, मेरा एकमात्र लक्ष्य उन बच्चों को इस आपदा से उबारना था. लेकिन, इन बच्चों ने गुजरात भूकंप में तीन महीने तक काम किया. उन बच्चों ने कई अन्य आपदाओं में भी सेवा की. सामाजिक चेतना का यह बीज उनके मन में रोपा गया. मुझे लगता है कि यह बात शिक्षा से भी बड़ी है. हमने उनमें वह शक्ति भर दी है कि ये बच्चे बड़े से बड़े प्रोजेक्ट संभाल सकें. छात्रों में कई तरह की अपार क्षमताएं होती हैं. अगर उन क्षमताओं को बढ़ावा नहीं दिया गया, तो वे सड़ जाती हैं. मुझे लगता है कि उन बच्चों को मौका देना मेरा काम है. मेरा मुख्य काम उन्हें शिक्षित करना, उन्हें मूल्य प्रदान करना, उन्हें समाज सेवा के बारे में जागरूक करना और अवसर प्रदान करना है, बाकि उनका भविष्य ही उनकी नियति है.

प्रश्न आप और आपके सहकर्मी, कार्यकर्ता इस परियोजना में हमेशा साथ रहे. लेकिन, आपको क्या लगता है कि समाज ने आपको किस नजरिए से देखा..?

जवाब :
किल्लारी भूकंप के बाद के 32 वर्षों में से शुरुआती 20 वर्षों तक, मैं इस परियोजना में अपना योगदान दे रहा था. पिछले 10-12 वर्षों से, पहले पी. सी. नहार और फिर उनके बेटे अरुण नहार और विलास राठौड़ इस परियोजना की देखरेख कर रहे हैं. पिछले दस वर्षों से, हम अपने स्कूल के कुछ कमरे दूसरे छात्रों को दे रहे हैं. सारा खर्च उनसे प्राप्त धन से चलता है. अगर कोई अपनी ओर से धन देता है, तो हम उसे स्वीकार कर लेते हैं. लेकिन, हम उस पर निर्भर नहीं हैं. इसके अलावा, हम इस बात का ध्यान रखते हैं कि धन की कमी न हो. हम और जगह लेने पर भी विचार कर रहे हैं. इस संबंध में योजना बनाई जा रही है.महाराष्ट्र के लोगों ने मुझ पर बहुत भरोसा किया है. आदिवासियों ने भी अपने बच्चों को मेरे पास भेजा है. आत्महत्या, भूकंप, कोरोना जैसी विभिन्न आपदाओं से जूझते हुए लोग अपने बच्चों को भरोसे के साथ मेरे पास भेजते हैं. हम उनकी शिक्षा के लिए परियोजनाएं चलाते हैं. मैंने दीर्घकालिक परियोजनाएं शुरू की हैं. कई गांवों में सूखे को खत्म करने की परियोजनाएं चल रही हैं. चाहे किसी की भी सरकार हो, वे हम पर भरोसा करते हैं. क्योंकि हमने उस भरोसे को सही साबित किया है.