हमारे राजनेता पुलिस विभाग में सुधार क्यों नहीं करना चाहते?

    17-Dec-2025
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पिछले दिनाें छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर में आयाेजित डीजीपी-आइजी के समापन सत्र काे संबाेधित करते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र माेदी ने जनता के बीच पुलिस की छवि बदलने पर जाेर दिया. उन्हाेंने शहरी पुलिस व्यवस्था काे मजबूत करने और औपनिवेशिक काल के आपराधिक कानूनाें के स्थान पर लागू किये गये भारतीय न्याय संहिता, भारतीय साक्ष्य अधिनियम और भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता के बारे में जन जागरूकता बढ़ाने की आवश्यकता पर जाेर दिया. यह बिल्कुल सही बात है. लेकिन यह बहुत ही दयनीय स्थिति है कि आजादी के 78 साल बाद भी हम उस पुलिस बल पर निर्भर हैं, जिसका गठन अंग्रेजाें ने अपने औपनिवेशिक हिताें की पूर्ति के लिए किया था. प्रधानमंत्री देश काे विकसित भारत के रूप में देखना चाहते हैं, यह अच्छी बात है, पर एक आर्थिक महाशक्ति काे बेहतर कानून-व्यवस्था की ठाेस बुनियाद की आवश्यकता है.
 
हर वर्ष पुलिस सुधार पर काॅन्फ्रेंस हाेती है. आइबी, यानी खुफिया ब्यूराे यह काॅन्फ्रेंस आयाेजित करता है. इन काॅन्फ्रेंस में आतंकवाद पर, नक्सलवाद पर, जम्मू-कश्मीर पर, पूर्वाेत्तर पर खूब बातें हाेती हैं. लेकिन इनमें राेजाना की पुलिस समस्याओं पर कभी काेई बात नहीं हाेती. इन काॅन्फ्रेंस के आयाेजक आइबी में वे वरिष्ठ पुलिस अधिकारी हाेते हैं, जिन्हाेंने बीस-तीस साल से वर्दियां नहीं पहनी हैं.इसलिए उन्हें पुलिस काे हाेने वाली राेजमर्रा की समस्याओं की काेई खास जानकारी नहीं हाेती. मैंने सुझाव दिया था कि पुलिस सुधार पर सालाना काॅन्फ्रेंस दाे हिस्साें में हाेनी चाहिए. पहले हिस्से में पुलिस की राेजमर्रा की समस्याओं पर बातें हाें, ताकि उनका हल निकालने के बारे में साेचा जाये. और दूसरे हिस्से में उन तमाम चुनाैतियाें पर विस्तार से चर्चा हाे, जिन पर चर्चा हाेती ही है. देश के पुलिस बल काे जिन समस्याओं से राेज दाे-चार हाेना पड़ता है, वे बहुत बड़ी हैं.
 
मालखाने में सामान रखने की जगह नहीं है, थानाें में विजिटर्स रूम नहीं हैं. कई जगह थानाें में लाॅकअप नहीं हैं. पुलिस स्टेशन की बिल्डिंग जर्जर है. लाशाें के अंतिम संस्कार के लिए जितनी राशि दी जाती है, उतनी कम राशि में वह संभव नहीं है. ऐसी स्थिति में भी दाराेगा और पुलिस वाले जिस तरह काम करते हैं, वह अचरज में डालने वाला है. पुलिस सुधाराें की शुरुआत 1902 से हाेती है मुद्दा यह है कि इन सवा साै सालाें में कुछ भी नहीं बदला है. क्या यह हमारे लिए शर्म की बात नहीं है? अगर अंग्रेज नहीं बदले, ताे आप उन्हें दाेष नहीं दे सकते, लेकिन आप क्याें नहीं बदले? यह हम सभी का एक प्रतिबिंब है-वकील, पुलिस अधिकारी, नाैकरशाह, राजनेता, न्यायपालिका. हम जानते हैं कि यह एक औपनिवेशिक ढांचा है, जाे हमें दिया गया है और हम इसे राेकने के लिए तैयार नहीं हैं, क्याेंकि सत्ता में बैठे राजनेता साेचते हैं कि यह उनके अनुकूल है, वे इसका इस्तेमाल और दुरुपयाेग कर सकते हैं. इसलिए, यह व्यवस्था जारी है.
 
अगर आप अपराध की अच्छी तरह से जांच करना चाहते हैं, अगर आप अच्छी कानून-व्यवस्था चाहते हैं, ताे पुलिस सुधाराें से काेई बच नहीं सकता. हमें सुधाराें की आवश्यकता क्याें है? एक ताे कानून-व्यवस्था के लिए और दूसरा आंतरिक सुरक्षा चुनाैतियाें से निपटने के लिए. हमें सबसे तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्था हाेने पर गर्व है. अगर आप आर्थिक प्रगति की गति काे बनाये रखना चाहते हैं, ताे आपकाे अच्छी कानून-व्यवस्था की आवश्यकता है. और अगर आप अच्छी कानून-व्यवस्था चाहते हैं, ताे आपकाे सुधार करने हाेंगे. अगर जरूरी पुलिस सुधार नहीं किये गये और औपनिवेशिक माॅडल पर ही पुलिस काम करती रही, ताे लाेकतांत्रिक व्यवस्था ध्वस्त हाे जायेगी. वर्ष 2006 में सुप्रीम काेर्ट ने पुलिस सुधार का निर्देश जारी किया था. लेकिन उस दिशा में ज्यादा कुछ नहीं हुआ. मेरी किताब, ‘द स्ट्रगल फाॅर पुलिस रिफाॅर्म्स इन इंडिया: रूलर्स पुलिस टू पीपल्स पुलिस’ से आपकाे पता चलेगा कि शीर्ष अदालत का फैसला आने के बाद राज्याें ने अपने-अपने कानून ताे पारित किये, लेकिन केवल यथास्थिति काे वैध बनाने के लिए.
 
ऐसे में, प्रधानमंत्री ने बदलाव लाने की जाे बात कही है, उसके लिए बहुत कुछ करना हाेगा. सबसे पहला और जरूरी काम है कि पुलिस खुद अपनी छवि सुधारे. लाेगाें का भराेसा अपने आप जीता नहीं जा सकता, भराेसा हासिल करना पड़ता है. लिहाजा आम लाेगाें के साथ बातचीत और संवाद का तरीका बदलना हाेगा. थानाें में पुलिस के लाेग आम आदमी से जिस तरह बात करते हैं, उनमें असहमति और दबंगई दिखती है. इसके बजाय आम आदमी के साथ सम्मान से पेश आना हाेगा. विनम्रता भरे एक शब्द, धैर्य के साथ लाेगाें की बात सुनने की आदत और सम्मानजनक ढंग से समाधान बताने का ही बेहद प्रभावी असर हाेगा और इससे लाेगाें में पुलिस के प्रति धारणा बदलेगी.लाेगाें की शिकायतें तत्काल दर्ज करना भी उतना ही आवश्यक है. एफआईआर दर्ज करने से बचना या मना करना भी पुलिस के प्रति आम लाेगाें की प्रतिकूल छवि बनने का एक कारण है. जब पीड़िताें काे खाली हाथ लाैटा दिया जाता है, -प्रकाश सिंह