आज के समय में पारिवारिक और संपत्ति से जुड़े विवाद आम होते जा रहे हैं. ऐसे में नागरिकों को यह जानना बेहद जशरी है कि कानून उन्हें कौन-से अधिकार और संरक्षण देता है. इस साक्षात्कार में वैवाहिक विवाद, तलाक, भरण-पोषण, बच्चों की कस्टडी, दपतावेजों की वैधता और संपत्ति से जुड़े महत्वपूर्ण कानूनी प्रश्नों के एड. बी.एस.धापटे ने सरल और स्पष्ट उत्तर दिए गए हैं. प्रस्तुत हैं उनसे बातचीत के प्रमुख अंश- एड. भालचंद्र धापटे, मोबाइल - 9850166213
उत्तर- पति-पत्नी के बीच विवाद की स्थिति में भारतीय कानून पत्नी को व्यापक संरक्षण प्रदान करता है. विशेष रूप से घरेलू हिंसा से महिलाओं का संरक्षण अधिनियम, 2005 महिलाओं की सुरक्षा के लिए एक महत्वपूर्ण कानून है. इस अधिनियम के अंतर्गत शारीरिक, मानसिक, भावनात्मक, आर्थिक तथा लैंगिक उत्पीड़न को घरेलू हिंसा की श्रेणी में रखा गया है. पत्नी को संरक्षण आदेश, निवास का अधिकार, चिकित्सकीय खर्च, आर्थिक सहायता और मुआवजा प्राप्त करने का अधिकार है. सुप्रीम कोर्ट ने V.D. Bhanot बनाम Savita Bhanot (2012) के मामले में स्पष्ट किया है कि यह कानून महिलाओं को प्रभावी और त्वरित राहत देने के उद्देश्य से बनाया गया है, इसलिए इसकी व्याख्या संकीर्ण नहीं बल्कि व्यापक रूप में की जानी चाहिए्. न्यायालय का दृष्टिकोण सदैव महिलाओं के सम्मान, सुरक्षा और मौलिक अधिकारों के संरक्षण की ओर रहा है.
सवाल-तलाक का मामला लंबित रहने के दौरान पत्नी या पति को खर्च और भरण-पोषण मिल सकता है क्या?
उत्तर- हाँ, हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 की धारा 24 के अंतर्गत तलाक की कार्यवाही के दौरान वह पक्ष, जो आर्थिक रूप से कमजोर है, अंतरिम भरण-पोषण और न्यायालयीन खर्च पाने का अधिकारी होता है. न्यायालय दोनों पक्षों की आय, जीवन-स्तर, जिम्मेदारियों और आवश्यक खर्चों को ध्यान में रखकर राशि निर्धारित करता है. सुप्रीम कोर्ट ने Rajnesh बनाम Neha (2020) के ऐतिहासिक निर्णय में भरण-पोषण तय करने के लिए स्पष्ट दिशा-निर्देश दिए हैं और यह कहा है कि भरण-पोषण दंडात्मक नहीं बल्कि जीवन- यापन के लिए होता है. इसका उद्देश्य यह भी है कि मुकदमा अनावश्यक रूप से लंबित न रहे और दोनों पक्ष सम्मानपूर्वक अपनी बात रख सकें.
सवाल- बच्चों की कस्टडी के मामलों में न्यायालय किस मुख्य आधार पर निर्णय देता है?
उत्तर- बच्चों की कस्टडी के मामलों में भारतीय न्यायालयों का मुख्य आधार होता है बच्चे का सर्वो त्तम हित्. माता-पिता के आपसी विवाद, आरोपप्रत्य ारोप या व्यक्तिगत अधिकारों से अधिक महत्व बच्चे के शारीरिक, मानसिक, भावनात्मक और शैक्षणिक कल्याण को दिया जाता है. सुप्रीम कोर्ट ने Gaurav Nagpal बनाम Sumedha Nagpal (2009) के निर्णय में कहा है कि कस्टडी तय करते समय कानूनी तकनीकों ऊपर उठकर बच्चे के भविष्य को प्राथमिकता देनी चाहिए. इसलिए न्यायालय यह देखता है कि कौनसा अभिभावक बच्चे को स्थिर, सुरक्षित और अनुकूल वातावरण प्रदान कर सकता है.
सवाल-बिना पंजीकरण वाला दपतावेज कानूनी रूप से कितना वैध होता है?
उत्तर- जिन दपतावेजों का पंजीकरण पंजीकरण अधिनियम, 1908 के अनुसार अनिवार्य है, यदि वे पंजीकृत नहीं हैं तो उनसे स्वामित्व का अधिकार सिद्ध नहीं किया जा सकता. हालांकि, ऐसे दपतावेजों का सीमित उपयोग किया जा सकता है. सुप्रीम कोर्ट ने K.B. Saha and Sons Pvt. Ltd. बनाम Development Consultant Ltd. (2008) में स्पष्ट किया है कि अपंजीकृत दपतावेज स्वामित्व के लिए मान्य नहीं होता, लेकिन लेन-देन की प्रकृति या करजा दर्शाने के लिए उसका सीमित रूप से उपयोग किया जा सकता है. इसलिए महत्वपूर्ण लेन-देन में दपतावेजों का पंजीकरण अत्यंत आवश्यक है.
सवाल - यदि वंशानुगत संपत्ति को कोई एक सह- हिस्सेदार बिना सहमति के बेच दे तो क्या होता है?
उत्तर- वंशानुगत संपत्ति पर सभी सह-हिस्सेदारों का जन्मसिद्ध समान अधिकार होता है. अतः किसी एक सह- हिस्सेदार द्वारा अन्य सह-हिस्सेदारों की सहमति के बिना पूरी संपत्ति बेचना कानूनी रूप से वैध नहीं माना जाता. सुप्रीम कोर्ट ने Vineeta Sharma बनाम Rakesh Sharma (2020) के ऐतिहासिक फैसले में यह स्पष्ट किया है कि बेटियों को भी जन्म से ही वंशानुगत संपत्ति में समान अधिकार प्राप्त है. ऐसी स्थिति में अन्य सह- हिस्सेदार न्यायालय में बिक्री को चुनौती दे सकते हैं और विभाजन का दावा कर सकते हैं