ब्रह्म का मतलब हाेता है फैलते चले जाना !

    21-Dec-2025
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Osho 
 
जिसे पहली दे ब्रह्म शब्द सूझा हाेगा, वह आदमी अदभुत रहा हाेगा, क्याेंकि ब्रह्म का मतलब हाेता है ैलना-ैलते ही चले जाना; ैलते ही चले जाना.लेकिन कितना अदभुत है, जिन लाेगाें ने ब्रह्म शब्द खाेजा, उन्हीं लाेगाें ने सिकाेड़ने की िफलासी खाेजी. वे कहते हैं, सिकुड़ते चले जाओ- अपरिग्रह, अनासक्ति, त्याग, वैराग्य- सिकुड़ाे, छाेड़ाे, जाे है उससे भागाे और सिकुड़ते जाओ, जब तक बिल्कुल मर न जाओ तब तक सिकुड़ते चले जाओ. संताेष इसका आधार बना, सिकुड़ना इसका क्रम बना, और भारत की आत्मा सिकुड़ गई और संतुष्ट हाे गई. अब जरूरत है कि ैलाओ इसे.इस चाैराहे पर ैलने का निर्णय लेना पड़ेगा. छाेड़ाे संताेष, लाओ नए असंताेष, नए डिसकंटेंट.
 
दूर काे जीतने की, दूर काे पाने की, दूर काे उपलब्ध करने की आकांक्षा काे जगाओ, अभीप्सा काे जगाओ, कि जाे भी पाने याेग्य है पाकर रहेंगे; जाे नहीं पाने याेग्य है उसकाे भी पाकर रहेंगे; ताे इस मुल्क की प्रतिभा में प्राण आएं, ताे इसके भीतर से कुछ जगे. क्याेंकि जब भी कुछ जगता है तब ैलना चाहता है. और जब ैलना नहीं चाहते आप ताे साेने के सिवाय काेई उपाय नहीं रह जाता.
साे जाता है सब. अभीप्सा जगानी है- डिसकंटेंट, असंताेष. कहीं अगस्तीन ने एक शब्द लिखा है, वह मुझे प्रीतिकर हाे गया. लिखा है उसने, ‘डिवाइन डिसकंटेंट’ लिखा है, ‘धार्मिक असंताेष’; लिखा है, पवित्र असंताेष.सच में असंताेष से ज्यादा पवित्र और कुछ भी नहीं है, क्याेंकि असंताेष गति है, विकास है, परिवर्तन है, क्रांति है. इसलिए विश्वास नहीं, चाहिए विचार. अंधापन नहीं, चाहिए संदेह. अंधे विश्वासाें की श्रृंखलाएं नहीं, चाहिए वैज्ञानिक चिंतन. चाहिए अभीप्सा-अनंत काे जीत लेने की, ैल जाने की.
 
काश भारत के मन में अनंत की यह अभीप्सा जाग जाए ताे हम अपनी साेई हुई आत्मा काे पुनः जगा सकते हैं. और ध्यान रहे, जागा हुआ भारत ही निर्णय ले सकेगा कि इस चाैराहे से कहां जाए; साेया हुआ भारत ताे इसी चाैराहे पर अीम खाकर साेया रहेगा. अीम के हमने अच्छे-अच्छे नाम रखे हैं. किसी अीम की पुड़िया पर लिखा है राम-नाम. किसी अीम की पुड़िया पर लिखा है भगवत-भजन. किसी अीम की पुड़ियाएं पर कुछ और, किसी अीम की पुड़ियाएं पर कुछ और.अीम की पुड़िएं तैयार हैं. भक्तगण अीम की पुड़िएं लेकर चाैरस्ते पर साे रहे हैं. और आप पूछते हैं कि समाज परिवर्तन के चाैराहे पर? और समाज अीम खाकर साेया हुआ है! काैन परिवर्तन? कैसा चाैराहा? कहां जाना है? झंझट में मत पड़ाे- अीम लाे, साे जाओ. साेने से ज्यादा सरल, सुविधापूर्ण और कुछ भी नहीं है.