मजहबी कट्टरता और नास्तिकता में शांति की गारंटी नहीं

    10-Jul-2025
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बीते दिनाें पश्चिम एशिया एक बार फिर युद्ध की आग में झुलसने से बचा, जब ईरान-इजरायल के बीच अस्थायी युद्ध विराम हुआ. यह काेई पहला संघर्ष नहीं था, न ही यह आखिरी. हालिया घटनाक्रम इतिहास का वह दर्पण है, जिसमें मनुष्य की अंतहीन शांति-कामना और उसकी रक्तरंजित प्रवृत्तियाें का विराेधाभास साफ दिखता है. विडंबना यह है कि एक ओर मानव जाति विश्व शांति के स्वप्न देखती है, वहीं दूसरी ओर उसका इतिहास खूनखराबे और नरसंहाराें से अटा पड़ा है. एक अनुमान के मुताबिक, सन 1800 से अब तक लगभग चार कराेड़ लाेग सशस्त्र संघर्षाें में मारे जा चुके हैं, जबकि समस्त इतिहास में हिंसा और युद्धाें के चलते मृत्यु का आंकड़ा इससे कहीं अधिक गुना में पहुंच जाता है. ये आंकड़े चीत्कार कर कहते हैं -मानवता काे सबसे बड़ा खतरा किसी प्राकृतिक आपदा या महामारी से नहीं, बल्कि स्वयं मनुष्य और उसकी विकृत मानसिकता से है.
 
इस वैश्विक संकट की जड़ तीन स्थायी विकृतियाें में निहित है-पहला, असीमित व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाएं; दूसरा, साम्राज्यवादी साेच; और तीसरा, मजहबी असहिष्णुता. ये तीनाें या फिर इन तीनाें का घातक मेल ही मानव सभ्यता काे बार-बार विनाश की ओर धकेलता है. विशेष रूप से वे मजहबी चिंतन जाे एक ही ईश्वर, एक ही ग्रंथ, एक ही मार्ग की बात करते हैं और बाकी सभीआस्थाओं काे झूठा, काफिर-कुफ्र, पेगन-हीथेन और दंडनीय मानते हैं-वे वैश्विक साैहार्द के सबसे बड़े अवराेधक हैं.विश्व की सबसे पुरानी अब्राहमिक परंपरा यहूदी मजहब से शुरू हाेती है, जिसका आधार ग्रंथ ‘ताेरा’ है. सैकड़ाें वर्ष पहले इसी समाज में ईसा मसीह का जन्म हुआ, जिन्हाेंने भाईचारे और प्रेम का संदेश दिया. परंतु लाखाें ईसाई मानते हैं कि यहूदी षड्यंत्राें के चलते ही ईसा काे क्रूस पर चढ़ाया गया.
 
यही आराेप सदियाें तक दाे मजहबाें के बीच खाई बनाता गया. चर्च के प्रभुत्व के बाद राेमन साम्राज्य में यहूदियाें का दमन शुरू हुआ-उन्हें कानूनी, सामाजिक और आर्थिक रूप से हाशिये पर धकेल दियागया, जाे कि मध्यकाल तक बदस्तूर जारी रहा.यहूदियाें की इस पीड़ा का चरम उदाहरण एडाेल्फ हिटलर के नाजी शासन में देखा गया, जिसने 60 लाख से अधिक यहूदियाें का नरसंहार किया. सातवीं शताब्दी में इस्लाम का उदय हुआ, और मजहबी-राजनीतिक कारणाें से यहूदी-विराेध एक नई सूरत में उभरा.इतिहासकार और इस्लामी विशेषज्ञ प्राे. इश्तियाक अहमद जिल्ली द्वारा अनुवादित तारीख-ए-फिराेजशाही के अनुसार, खलीफा उमर ने अरब, सीरिया, मिस्र, खुरासान और राेम तक इस्लाम काे तलवार के बल पर फैलाया.मूर्तिपूजा और अग्निपूजा का समूल नाश किया गया.
 
भारत में भी माेहम्मद बिन कासिम, गजनवी, गाेरी, बाबर और टीपू सुल्तान जैसे इस्लामी आक्रांताओं के आक्रमणाें का एकरक्तरंजित इतिहास है, जिसकी गवाही खुद उनके दरबारी और समकालीन इतिहासकार देते हैं.यह कट्टरता केवल एक मजहब तक सीमित नहीं.ईसाइयत ने भी अपने इतिहास में काेई काेर-कसर नहीं छाेड़ी है. 1095 से 1291 तक चले क्रूसेड्स में ईसाई सेनाओं ने यरुशलम के नाम पर लाखाें लाेगाें (मुस्लिम सहित) का संहार किया. चर्च की ‘इंक्विजिशन’ नीतियाें ने स्पेन, पुर्तगाल, गाेवा, मैक्सिकाे में रक्त से क्रूरता कीनई परिभाषाएं गढ़ीं. चुड़ैल बताकर हजाराें महिलाओं काे जीवित जलाना, चर्च की मान्यताओं से असहमत लाेगाें की जीभ काटना, अंग-भंग करना-ये सब मजहब प्रेरित हिंसा काे वैधता प्रदान करने की भयावह मिसालें हैं. बाबासाहेब डाॅ. आंबेडकर और गांधी जी सहित अनेक महान स्वतंत्रता सेनानियाें ने भी चर्च प्रेरित अत्याचाराें का संज्ञान लिया है.
 
बीसवीं सदी आते-आते यह साेचा गया कि शायद सभ्यता अब युद्धाें से ऊपर उठ चुकी है. परंतु इतिहास ने एक बार फिर गलत साबित किया. पहला विश्वयुद्ध (1914-18) मानवता के लिए घातक सिद्ध हुआ. इसके बाद वैश्विक शांति के लिए ‘लीग ऑफ नेशंस’ बनाई गई, पर वह ध्वस्त हाे गई. 1939 से 1945 तक दूसरा विश्वयुद्ध और भी अधिक भयानक रूप में आया. तब जाकर 1945 में ‘संयुक्त राष्ट्र’ की स्थापना हुई, जिसका उद्देश्य वैश्विक युद्ध राेकना था. लेकिन क्या वास्तव में वह उद्देश्य पूरा हुआ? यदि हम तथ्याें की आंखाें से देखें, ताे उत्तर नकारात्मक है.
 
काेरिया युद्ध (195053), अरब-इजरायल युद्ध (1948, 1967), भारत-चीन युद्ध (1962), भारत से चार प्रत्यक्ष युद्धाें में पराजित पाकिस्तान की आतंकवाद आधारित नीति (1971 के बाद), साेवियत-अफगान संघर्ष (197889), 2001 का न्यूयाॅर्क 9/11 आतंकवादी हमला, इराक युद्ध (2003-11), अफगानिस्तान युद्ध (2001-21), जिहाद और हालिया ईरान-इजरायल-अमेरिका टकराव-ये सभी उस सच्चाई की गवाही देते हैं कि मजहब, भूखंड और सत्ता का संगम विश्व काे लगातार हिंसक बनाए हुए है और ऐसा शायद आगे भी जारी रहेगा. यह आश्चर्य नहीं कि इन सभी संघर्षाें का केंद्रबिंदु मजहबी अवधारणाएं, व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा और साम्राज्यवादी चिंतन हैं. प्रश्न उठता है कि क्या मजहब के बिना, यानी नास्तिक या मजहब-विहीन समाज ही शांति का विकल्प हाे सकता है? वामपंथी विचारधारा इसी भ्रम काे फैलाती है. पर साेवियत संघ, चीन और उत्तर काेरिया जैसे कम्युनिस्ट शासन ने मजहब के साथ माैलिक मानवाधिकाराें काे भी निर्ममता से कुचला और बावजूद इसके संतुष्ट और शांतिपूर्ण समाज का निर्माण नहीं कर सके. -बलवीर पुंज, पूर्व राज्यसभा सदस्य