भारत निर्वाचन आयाेग द्वारा जल्द ही पूरे देश में विशेष गहन पुनरीक्षण अभियान चलाने की चर्चा जाेराें पर है.अगर ऐसी कुछ याेजना है, ताे इसका अवश्य स्वागत किया जाना चाहिए. आखिरकार पिछले देशव्यापी मतदाता गहन पुनरीक्षण के 22 साल बीत चुके हैं. हालांकि, इससे पहले बिहार में चल रहे इस कार्य के सबक आयाेग काे जरुर याद रखने चाहिए.बिहार का पुनरीक्षण अभियान इसलिए विवादाें में घिर गया, क्योंकि इसे विधानसभा चुनाव के करीब आने पर आनन-फानन में शुरु किया गया है, जबकि यह कवायद पर्याप्त समय मांगती है. बिहार में मतदाता पुनरीक्षण का कार्य साल 2003 में हुआ था, जबकि विधानसभा चुनाव 2005 में हुए थे. मतदाताओं काे व्नत देने से हाेता यह है कि यदि किसी कारणवश किसी वाेटर का नाम प्र्राथमिक सूची में नहीं आता, ताे वह उचित व्यवस्था के तहत अपील कर सकता है. मगर अभी यह शायद ही संभव हाे सकेगा.
दूसरी बात, यह काम जल्दबाजी में तभी हाे सकता है, जब ऊपर से नीचे तक पूरी चाक-चाैबंद व्यवस्था हाे.मगर अपने देश में कर्मचारियाें, विशेषकर चतुर्थ श्रेणी के कर्मियाें के क्षमता-विकास के लिए सरकाराें ने पर्याप्त काम नहीं किए हैं. नतीजतन, इन कर्मियाें से हम शत-प्रतिशत सटीक याेगदान की अपेक्षा नहीं कर सकते. फिर भी, यदि इसे आनन-फानन में करने की मजबूरी थी, ताे आयाेग काे सबसे पहले सर्वदलीय बैठक बुलानी चाहिए थी और सभी पार्टियाें की सहमति लेनी चाहिए थी. मगर यह भी नहीं किया गया.आयाेग दावा कर रहा है कि 80 फीसदी फाॅर्म उसके पास आ गए हैं और बीएलओ, यानी बूथ लेवल अधिकारी अच्छा काम कर रहे हैं, पर वास्तव में बिहार के कुल 70 से 75 हजार बीएलओं में महज 200-300 प्रशिक्षित हैं. यानी, ‘इंडिया इंटरनेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ डेमाेक्रेसी एंड इले्नशन मैनेजमेंट’ से प्रशिक्षण प्राप्त कर्मियाें की संख्या काफी कम है.
इन चंद बीएलओ के दम पर तमाम अधिकारियाें से बेहतर प्रदर्शन की अपेक्षा रखना उचित नहीं हाेगा.इस पूरे अभियान के लिए जरुरी तैयारियां भी शायद ही की गई थीं. जैसे, 24 जून काे पुनरीक्षण अभियान का आदेश जारी किया गया, और मतदाता सूची के प्रारंभिक प्र्रकाशन और आपत्ति निराकरण की तारीख बता दी गई.मगर मामला तब उलझ गया, जब इसके खिलाफ सुप्रीम काेर्ट में याचिका लगी.‘एसाेसिएशन फाॅर डेमाेक्रेटिक रिफाॅर्म्स’ (एडीआर) की इस याचिका में हाे गया कि चुनाव आयाेग ने 2003 की मतदाता सूची काे आधार माना है, और जिन-जिन वाेटराें के नाम 2003 के बाद सूची में जुड़े हैं, उनकाे अपनी नागरिकता साबित करनी हाेगी. ऐसे लाेगाें की संख्या करीब तीन कराेड़ है. जाहिर है, मतदाता सूची के प्रारंभिक प्रकाशन में आयाेग पांच कराेड़ से अधिक मतदाताओं के नाम शामिल नहीं कर सकता था. जबकि करीब आठ कराेड़ मतदाता है यहां.
हालांकि, सवाल यह भी था कि नागरिकता की पहचान करना चुनाव आयाेग का काम नहीं है. 1995 में सर्वाेच्च न्यायालय ने अपने एक आदेश में कहा था कि नागरिकता गृह मंत्रालय के आधीन है. लिहाजा, बाद में प्रमाण-पत्राें की बाध्यता काे टालना ही आयाेग ने बेहतर समझा. इतना ही नहीं, उसने साल 2023 में आधुनिक तकनीक की मदद से देश भर में मतदाता सूची का शुद्धिकरण किया था और उन नामाें काे हटा दिया था, जाे दाे या अधिक बार या गलत तरीके से जाेड़े गए थे. इसी कारण संभवत: पहली बार मतदाताओं की संख्या कम हाे गई थी और 2022 में कुल 95.24 कराेड़ वाेटराें की तुलना में 2023 में 95.06 कराेड़ वयस्क मतदाता-सूची का हिस्सा शेष बचे थे. ऐसे में अभी वही काम फिर से करने की बाध्यता भी सवालाें में है? जाहिर है, इस कवायद काे देश भर में लागू करने से पहले चुनाव आयाेग काे इन मुद्दाें पर गंभीरता से विचार करना हाेगा.
सर्वप्रथम उसे सभी पार्टियाें की एक बैठक बुलानी चाहिए और यह बताना चाहिए कि ऐसे अभियान की जरुरत क्यों है? उनकाे भराेसे में लेना चाहिए. इन पार्टियाें में तमाम राष्ट्रीय पार्टियाें के अलावा क्षेत्र के बड़े दलाें काे भी बुलाना चाहिए, जैसे द्रमुक (तमिलनाडु), तृणमूल कांग्रेस(पश्चिम बंगाल), समाजवादी पार्टी (उत्तर प्रदेश), सीपीएम (केरल) आदि.इतना ही नहीं, यह अभियान समय लेकर शुरू करना चाहिए, ताकि किसी कारणवश काेई मतदाता यदि सूची का हिस्सा नहीं रहता, ताे उसे इतना व्नत मिले कि पूरी प्रक्रिया के तहत वह अपना नाम फिर से जुड़वा सके. बिहार में ही 30 सितंबर की समय-सीमा रखी गई है.जबकि चुनाव अ्नटूबर-नवंबर में संभावित हैं, इसलिए किसी मतदाता का नाम सूची से कटने पर उसे दावा करने या उसके निपटारे का शायद ही व्नत मिलेगा!
सुखद है कि इन सब कामाें में बजट कभी आड़े नहीं आता. अभी ही, जब ‘एक देश, एक चुनाव’ की चर्चा तेज है, तब चुनाव आयाेग काे इसके लिए करीब 50 लाख ईवीएम और लगभग इतने ही वीवीपैट मशीनाें की जरुरत हाेगी, जबकि उसके पास अभी करीब 25 लाख ईवीएम और 30 लाख के लगभग वीवीपैट मशीने हैं. जाहिर है, इन मशीनाें के लिए आयाेग काे पैसाें की जरुरत हाेगी, जाे उसे मिल जाएगी. ऐसे में, उससे यही अपेक्षा की जाती है कि वह पूरी चुनाव-प्र्रक्रिया में इतनी पारदर्शिता रखेगा कि किसी काे काेई शक न हाे.कुछ लाेग यह भी तर्क देते हैं कि जब ‘एक देश, एक चुनाव’ हाे रहा है, ताे एक मतदाता सूची क्यों नहीं? अभी लाेकसभा व विधानसभा चुनावाें के लिए एक मतदाता सूची का इस्तेमाल हाेता है, जबकि पंचायत और नगर निकायाें के लिए दूसरी. मगर इनमें शायद ही अंतर हाेता है.
क्योंकि लाेकसभा व विधानसभा चुनावाें की मतदाता सूचियाें काे ही पंचायत व निकाय चुनावाें के लिए वार्ड के हिसाब से बांटा जाता है. चूंकि वार्ड के हिसाब से पंचायत या निकाय चुनावाें के लिए मतदाता सूची का पुनरीक्षण हाेता है, इसलिए कभी-कभी किसी मतदाता का नाम विधानसभा या लाेकसभा चुनावाें की मतदाता सूची में हाेता है, पर पंचायत या निकाय चुनावाें की मतदाता सूची में नहीं.अच्छी बात यह भी है कि पहले संक्षिप्त पुनरीक्षण का काम. 1 जनवरी की तारीख तक हाेता था, यानी 1 जनवरी काे 18 साल पूरा करने वाला मतदाता वाेट डालने के याेग्य माना जाता था, पर अब चार तारीखें तय कर दी गई है. 1 जनवरी, 1 अप्रैल, 1 जुलाई और 1 अ्नटूबर लिहाजा,लाेगाें के पास मतदाता सूची में अपने नाम जुड़वाने के अब कई माैके हैं. -ओपी रावत, पूर्व मुख्य चुनाव आयु्नत