इस साल के अंत में अ्नटूबर-नवंबर में हाेने वाला बिहार विधानसभा चुनाव निर्णायक साबित हाे सकता है.यह चुनाव ऐसे समय में हाे रहा है, जब पिछले दाे दशकाें से राज्य के राजनीतिक परिदृश्य पर छाए रहने वाले मुख्यमंत्री और जद (यू) नेता नीतीश कुमार की सेहत और छवि में गिरावट आई है.हालांकि, उन्हाेंने सेवानिवृत्ति की अटकलाें काे खारिज करते हुए हाल ही में कहा कि वह ‘कहीं नहीं जा रहे हैं’, और महिलाओं के लिए राज्य सरकार की नाैकरियाें में 35 फीसदी आरक्षण की घाेषणा कर उन्हाेंने अपनी उपस्थिति महसूस कराने की काेशिश की, लेकिन यह धारणा बनी हुई है कि वह कमजाेर पड़ रहे हैं. ऐसे में हैरानी नहीं है कि राजनीतिक दल, जिनमें उनकी अपनी पार्टी भी शामिल है, पहले से ही नीतीश के बाद के दाैर की तैयारी कर रहे हैं और उसी के अनुसार, चुनावी रणनीति बना रहे हैं.
इससे एक दिलचस्प जंग देखने काे मिल रही है. हालांकि, बिहार चुनाव सिर्फ पटना में अगली सरकार बनने के बारे में नहीं है. यह 1990 के दशक से भारतीय राजनीति काे आकार देने वाले मंडल बनाम कमंडल (हिंदुत्व) के संघर्ष की अंतिम सीमा का प्रतिनिधित्व करता है. इसलिए इस जनादेश का असर राष्ट्रीय राजनीति पर भी पड़ने की संभावना है.नीतीश की स्वास्थ्य समस्याएं भाजपा के लिए उनकी छाया से बाहर निकलने का अवसर है. यही नहीं, उसे उस राज्य में पहली बार अपनी पार्टी का मुख्यमंत्री बनाने के साथ खुद काे स्थापित करने का माैका मिलेगा, जाे अब तक उसकी पकड़ से बाहर रहा है.अगर भाजपा बिहार में जीतती है, ताे वह हिंदी पट्टी में अपना परचम लहराएगी और मंडल राजनीति के अंतिम अवशेषाें काे मिटाने के लिए हिंदुत्व काे नई गति देगी.
वह बिहार की जीत का इस्तेमाल एक और ऐसे राज्य में प्रवेश के लिए करेगी, जाे अब तक पहुंच से बाहर है, जैसे पड़ाेसी पश्चिम बंगाल, जहां 2026 की पहली छमाही में चुनाव हाेंगे. भाजपा के लिए बिहार में मुख्य चुनाैती राजद, कांग्रेस और वामपंथी पार्टियां (सीपीआई-एमएल सहित) से मिलकर बना इंडिया गठबंधन है. नीतीश की सेहत ने मंडल वाेट बैंक काे फिर से एकजुट कर हिंदुत्ववादी ताकताें काे दूर रखने की उम्मीदें जगाई हैं.वर्ष 2006 में भाजपा गठबंधन वाली सरकार के मुख्यमंत्री के रूप में नीतीश ने 113 उप-जातियाें काे बाहर निकालकर मंडल ब्लाॅक काे ताेड़ दिया. उन्हाेंने उन्हें अति पिछड़ा वर्ग बताया और उनके लिए विशेष कल्याणकारी याेजनाएं चलाईं. उन्हाेंने कुछ मुस्लिम समूहाें काे भी इसमें शामिल किया, जिससे भाजपा के साथ गठबंधन के बावजूद उन्हें अल्पसंख्यकाें के एक वर्ग का समर्थन प्राप्त हुआ.
नीतीश सरकार द्वारा 2023 में कराई गई जाति गणना के अनुसार, राज्य में अति पिछड़ा वर्ग की हिस्सेदारी लगभग 36 फीसदी है. इनमें से बड़ी संख्या जद (यू) के वफादार मतदाताओं की है. इसी वर्ग के समर्थन ने नीतीश काे बिहार में एक मजबूत ताकत बनाया है, क्योंकि इसी वजह से वह जिस भी गठबंधन से जुड़ते थे, उसके पक्ष में चुनाव नतीजाें काे प्रभावित कर पाते थे. जब तक नीतीश सक्रिय रहे, बिहार इसी स्थिति में रहा. लेकिन अब, जब उनका स्वास्थ्य खराब हाे रहा है और सार्वजनिक उपस्थित कम हाे रही है, ताे सभी दल इस महत्वपूर्ण अति पिछड़ा वर्ग (ईबीसी) के वाेट बैंक पर नजर गड़ाए हुए हैं, ताकि उसे हथियाया जा सके.
जैसे-जैसे चुनाव नजदीक आ रहे हैं, बिहार में ईबीसी काे अपने पाले में करने की यह हाेड़ और भी तेज हाेती जा रही है. हर पार्टी इसमें शामिल है.
मिसाल के ताैर पर, भाजपा ने फरवरी में नीतीश काे अपनी सरकार में सात नए मंत्रियाें के लिए राजी किया. हैरानी नहीं कि इनमें से चार नीतीश के मतदाता वर्ग से हैं, जिससे साफ है कि भाजपा की नजर इस वाेट बैंक पर है. यही नहीं, नीतीश की रणनीति से सीख लेते हुए माेदी सरकार ने घाेषणा की कि एक मार्च, 2027 से शुरू हाेने वाली राष्ट्रीय जनसंख्या जनगणना में जातिगत गणना काे भी शामिल किया जाएगा, जबकि वह इसका विराेध करती रही है.उधर, राजद ने अपने इतिहास में पहली बार किसी अति पिछड़े वर्ग (ईबीसी) के नेता काे अपनी बिहार इकाई का अध्यक्ष नियु्नत किया है. हाल ही में, पार्टी ने धानुक जाति के 70 वर्षीय मंगल राम मंडल काे प्रदेश अध्यक्ष नियु्नत किया है. कांग्रेस भी अति पिछड़े वर्गाें काे साधने में सक्रिय है. राहुल गांधी इन समुदायाें के नेताओं से मिलने के लिए पिछले पांच महीनाें में बिहार के चार दाैरे कर चुके हैं.
जैसे-जैसे नीतीश कुमार की उम्र बढ़ रही है, दूसरी पार्टियां अपनी जगह बनाने की उम्मीद कर रही हैं. हालांकि, माेदी सरकार में केंद्रीय मंत्री और लाेकसभा सांसद हाेने के बावजूद, लाेजपा नेता चिराग पासवान ने अपना ध्यान राज्य की राजनीति पर केंद्रित करने का फैसला किया है और हाल ही में घाेषणा की है कि वह भी चुनाव लड़ेंगे. लेकिन एक और महत्वपूर्ण बात है चुनावी रणनीतिकार प्रशांत किशाेर (पीके) की नई पार्टी, जन सुराज, का प्रवेश. यह एक छुपी हुई संभावना है, लेकिन किशाेर काे नीतीश के नेपथ्य में काम करने के अपने अनुभवन से ताकत मिलती है, जब 2015 में राजद और जदयू के महागठबंधन ने भाजपा काे हराकर शानदार जीत हासिल की थी.प्रशांत किशाेर पिछले दाे साल से बिहार के काेने-काेने में पैदल यात्रा कर रहे हैं. जन सुराज के मुख्य प्रव्नता पवन वर्मा के अनुसार, वह राज्य के हर गांव तक पहुंच चुके हाेंगे.किसी भी नई पार्टी काे वाेट मिलना हमेशा मुश्किल हाेता है. लेकिन वर्मा का मानना है कि बिहार में बदलाव की प्रबल इच्छा है, जाे पीके की सभाओं में भारी भीड़ और एक कराेड़ से ज्यादा लाेगाें की सदस्यता से जाहिर हाे रही है.
-भारती आर जेरथ