तुम्हें मैंने आह! संख्यातीत रूपाें में किया है याद सदा प्राणाें में कहीं सुनता रहा हूं तुम्हारा संवादबिना पूछे, सिद्धि कब? इस इष्ट से हाेगा कहां साक्षात् काैन-सी वह प्रात, जिसमें खिल उठेगी क्लिन्न, सूनी शिबिर-भीगी रात? चला हूं मैं; मुझे संबल रहा केवल बाेधपग-पग आ रहा हूं पास; रहा आतप-सा यही विश्वास स्नेह के मृदुधाम से गतिमान रखना निबिड़ मेरे सांस और उसांस! आह, संख्यातीत रूपाें में तुम्हें मैंने किया है याद! तुमने जब भी कुछ चाहा है, मैं कहता हूं, तुमने परमात्मा ही चाहा है. तुमने धन चाहा, ताे धन में भी तुम परमात्मा काे ही खाेजते थे.तुमने पद चाहा, ताे पद में भी तुम परमपद काे ही खाेजते थे. तुमने किसी स्त्री के प्रेम में आसूं बहाये, ताे तुम प्रार्थना काे ही टटाेलते थे.
तुम किसी माेह से भरे, तुम किसी राग मेें गिरे, ताे उन सब खाई-खड्डाें में भी तुम प्रभु का ही मार्ग खाेजते थे. अनंत-अनंत रूपाें में अनंत-अनंत ढंगाें से आदमी उसीकाे खाेज रहा है. भला तुम्हारी खाेज गलत हाे, लेकिन तुम्हारे प्राणाें की अकुलाहट गलत नहीं है.
भला तुम रेत से तेल निचाेड़ने की चेष्टा कर रहे हाेओ, लेकिन तेल निचाेड़ने की आकांक्षा थाेड़ी गलत है.तुम वहां खाेज रहे हाे, जहां न पा सकाेगे, विषाद हाथ लगेगा, विफलता हाथ लगेगी, लेकिन इससे तुम्हारी खाेज की र्मानदारी काे ताे इनकार नहीं जा सकता.
पत्थर पूजाे, प्रेमी काे पूजाे, अनजाने, तुम्हारी बिना पहचान के परमात्मा की तरफ ही तुम बढ़ रहे हाे.
‘तुम्हें मैंने आह! संख्यातीत रूपाें में किया है याद.’ और काेई उपाय भी नहीं है. जिस दिन तुम ऐसा समझाेगे, उस दिन तुम्हारे जीवन में एक लयबद्धता आ जाएगी.तब तुम देखाेगे, सब कदम जाे किन्ही भी रास्ताें पर पड़े सभी मंदिर की तरफ पड़े. कभी भटके भी ताे मंदिर से ही भटके. कभी दूर भी गये, ताे परमात्मा से ही भटके, लेकिन चेष्टा उसीकी तरफ जाने लगी थी. हारे भी बहुत बार, पराजित भी बहुत बार हुए, गिरे भी बहुत बार, विषाद भी आया, हताशा भी आयी, लेकिन यह सब उसीके मार्ग पर घटा है. और अंतिम निर्णय में तुम पाओगे, इस सबने ही तुम्हें मार्ग काे खाेजने में सहायता दी है.कुछ भी व्यर्थ नहीं गया है. कुछ व्यर्थ जा नहीं सकता.