पिघलते ग्लेशियर और सिकुड़ते बादलाें के खतरे क्यों बढ़ रहे हैं?

    05-Aug-2025
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दुनिया के कराेड़ाें लाेग स्वच्छ जल की आपूर्ति के लिए ग्लेशियराें पर निर्भर हैं. लेकिन ये महत्वपूर्ण जलस्राेत इस समय भारी दबाव में हैं. यदि वैश्विक तापमान अपने वर्तमान पथ पर जारी रहता है, ताे दुनिया के 75 प्रतिशत ग्लेशियर गायब हाे सकते हैं. ग्लेशियराें के लुप्त हाेने का सिलसिला जारी रहेगा, भले ही आगे गर्मी और न बढ़े. ग्लेशियर माॅडल का उपयाेग करके किए गए एक अंतर्राष्ट्रीय अध्ययन से पता चलता है कि आज के स्तर पर तापमान काे स्थिर करने से भी ग्लेशियराें का 40 प्रतिशत नुकसान हाेगा. अध्ययन का निष्कर्ष है कि यदि दुनिया का तापमान 2.7 डिग्री सेल्सियस बढ़ता है, जाे वर्तमान जलवायु नीतियाें के अनुरूप है, ताे भी दुनिया के ग्लेशियराें की बर्फ का केवल एक-चाैथाई हिस्सा ही बचेगा.
 
लेकिन इस अध्ययन में आशा की एक किरण भी दिखाई देती है. यदि वैश्विक तापमान काे 1.5 डिग्री सेल्सियस तक सीमित किया जा सका, जाे पेरिस जलवायु समझाैते का लक्ष्य है, ताे तमाम ग्लेशियराें की बर्फ का लगभग आधा हिस्सा अब भी बचाया जा सकता है. दस देशाें के 21 विज्ञानियाें ने दुनिया भर के 2,00,000 से अधिक ग्लेशियराें के भविष्य का अनुमान लगाने के लिए आठ स्वतंत्र ग्लेशियर माॅडलाें का उपयाेग किया. इस अध्ययन में ग्रीनलैंड और अंटार्कटिका के ग्लेशियर शामिल नहीं किए गए. विज्ञानियाें ने अपने अध्ययन में वैश्विक तापमान के विभिन्न परिदृश्याें का परीक्षण किया. आज की वैश्विक गर्मी भी ग्लेशियराें के बड़े नुकसान का संकेत है. एक चाैंकाने वाला निष्कर्ष यह है कि अगर आज वैश्विक तापमान बढ़ना बंद हाे जाता है, ताे भी ग्लेशियर का नुकसान जारी रहेगा.
 
पूर्व-औद्याेगिक स्तराें से 1.2 डिग्री सेल्सियस ऊपर के वर्तमान वैश्विक तापमान पर लगभग 40 प्रतिशत ग्लेशियर बर्फ के पहले ही गायब हाेने का अनुमान लगाया जा चुका है.जर्मनी के ब्रेमेन विश्वविद्यालय के वैज्ञानिक बेन मार्जियन ने कहा कि अध्ययन के परिणाम इस तथ्य काे रेखांकित करते हैं कि वर्तमान जलवायु नीतियां भविष्य में ग्लेशियराें के आकार में निर्णायक भूमिका अदा करेंगी. वैज्ञानिकाें ने हर अतिरिक्त 0.1 डिग्री गर्मी पर वैश्विक ग्लेशियर द्रव्यमान म 2 प्रतिशत की गिरावट का अनुमान लगाया है. अध्ययन में शामिल एक अन्य वैज्ञानिक डाॅ. हैरी जेकाेलारी कहते हैं कि डिग्री का हर अंश मायने रखता है. आज हम जाे विकल्प चुनते हैं,वे सदियाें तक प्रतिध्वनित हाेंगे.नए अध्ययन से जुड़ी वैज्ञानिक डाॅ. लिलियन शूस्टर का कहना है कि ग्लेशियर जलवायु परिवर्तन के अच्छे संकेतक हैं. हम अपनी आंखाें से देख सकते हैं कि ग्लेशियराें के पीछे हटने से जलवायु कैसे बदल रही है.
 
हालांकि, उनका वर्तमान आकार पहले से हाे चुके जलवायु परिवर्तन की भयावहता काे बहुत कम करके आंकता है. ग्लेशियराें की स्थिति वास्तव में आज पहाड़ाें में दिखाई देने वाली स्थिति से कहीं ज्यादा खराब है. ग्लेशियर के पीछे हटने से न केवल समुद्र के स्तर पर असर पड़ता है, बल्कि ताजे पानी की उपलब्धता पर भी दूरगामी प्रभाव पड़ता है. ग्लेशियर से संबंधित खतराें का जाेखिम बढ़ता है और ग्लेशियर आधारित पर्यटन प्रभावित हाेता है. ये परिवर्तन जाे पहले से ही कई क्षेत्राें में दिखाई दे रहे हैं, वैश्विक जलवायु नीति के महत्व काे रेखांकित करते हैं. यह अध्ययन संयुक्त राष्ट्र के अंतरराष्ट्रीय ग्लेशियर संरक्षण वर्ष (2025) में एक महत्वपूर्ण याेगदान है और दुनिया के ग्लेशियराें काे बचाने के लिए वैश्विक जलवायु कार्रवाई की तत्काल आवश्यकता काे रेखांकित करता है.
 
ग्लाेबल वार्मिंग प्रकृति की दूसरी प्रणालियाें काे भी प्रभावित कर रही है. नासा के नेतृत्व में किए गए एक नए अध्ययन से पता चलता है कि तेज गर्मी का असर बादलाें पर भी दिखाई दे रहा है. पृथ्वी के लिए बादलाें के आवरण का विशेष महत्व है. बादल न सिर्फ धरती की प्यास बुझाते हैं बल्कि सूर्य के प्रकाश काे परावर्तित कर हमारे ग्रह काे ठंडा रखने में भी मदद करते हैं. लेकिन अब घने काले बादलाें का क्षेत्र सिकुड़ने लगा है. इन बादलाें काे स्टाॅर्म क्लाउड भी कहा जाता है. चिंता की बात यह है कि यह सिकुड़न अधिक साैर विकिरण काे अंदर आने दे रही है.वैज्ञानिकाें का कहना है कि पृथ्वी की हाल ही में गर्मी बढ़ने का यह सबसे बड़ा कारण है.उष्णकटिबंधीय क्षेत्राें और भूमध्य रेखा तथा ध्रुवीय क्षेत्राें के बीच के इलाकाें में काले बादलाें के क्षेत्र प्रति दशक 1.5 प्रतिशत से 3 प्रतिशत तक सिकुड़ गए हैं. ये क्षेत्र पहले बहुत अधिक मात्रा में सूर्य के प्रकाश काे वापस अंतरिक्ष में परावर्तित करते थे. बादलाें के गायब हाेने से अधिक गर्मी पृथ्वी की सतह तक पहुंच रही है.
 
विशेषज्ञाें ने अपने अध्ययन में 2001 से 2023 तक के उपग्रह डेटा का उपयाेग किया. उन्हाेंने बादलाें के आवरण और साैर विकिरण पर बादलाें के प्रभाव काे मापा. इस प्रभाव काे शाॅर्टवेव रेडिएशन इफेक्ट कहा जाता है. विज्ञानियाें का एक उद्देश्य यह पता लगाना था कि बादल सूर्य की कितनी राेशनी वापस लाैटाते हैं. अधिक नकारात्मक संख्या का मतलब है कि अधिक सूर्य की राेशनी परावर्तित हाे रही है. लेकिन वैज्ञानिकाें ने यह भी पाया कि मजबूत रेडिएशन प्रभाव वाले क्षेत्र सिकुड़ रहे हैं. इन सबका नतीजा अधिक गर्मी के रूप में सामने आ रहा है. प्रति दशक अवशाेषित साैर ऊर्जा में कुल वृद्धि में बड़ा हिस्सा सिकुड़ते बादल क्षेत्राें का था. बादल वाले क्षेत्र में छाेटी सी कमी भी पृथ्वी के ताप पर बड़ा प्रभाव डालती है. अध्ययन से पता चलता है कि अधिकांश गर्मी काले बादलाें के क्षेत्र में कमी के कारण आई है. -मुकुल व्यास