दीवानी मामलाें में नाती-पाेताें काे न्याय मिल जाए, ताे उन्हें भाग्यशाली माना जाता है. आपराधिक मामलाें में दशकाें बाद फैसला आने पर आराेपी, गवाह, अभियाेजन और पीड़ित किसी भी पक्ष काे न्याय नहीं मिलता. नए आपराधिक कानून में तीन साल के भीतर मामलाें के निपटारे की बात की जा रही है. एनसीआरबी के आंकड़ाें के अनुसार, साल-2022 में लगभग 58 लाख मामले दर्ज किए गए और 53 लाख से ज्यादा गिरफ्तारियां हुईं. सुप्रीम काेर्ट के पूर्व जज संजय किशन काैल के अनुसार, अपील के बढ़ते चलन की वजह से लंबित और नए मुकदमाें के निपटारे में 500 साल से ज्यादा लग सकते हैं. निठारी कांड, मुंबई बम धमाका और मालेगांव विस्फाेट जैसे चर्चित मामलाें में सीबीआई, एनआईए और एटीएस जैसी एजेंसियाें के लंबे-चाैड़े आराेपपत्र के बावजूद आराेपियाें की रिहाई से पूरे न्यायिक तंत्र के खिलाफ भराेसा डगमगाने से लाेगाें का गुस्सा बढ़ रहा है.
न्यायिक तंत्र की विफलता काे समझने के लिए तमिलनाडु के पूर्व मंत्री बालाजी मामले में सुप्रीम काेर्ट के जजाें की माैखिक टिप्पणियाें की झलक काफी है.बालाजी के खिलाफ रिश्वत लेकर नाैकरी देने के आराेप में 2,000 आराेपियाें और 500 गवाहाें काे शामिल करने पर जस्टिस सूर्यकांत ने राज्य सरकार काे फटकार लगाई. उन्हाेंने कहा कि ऐसे में ताे मुकदमे के ट्रायल के लिए अदालत के कमरे के बजाय क्रिकेट स्टेडियम की जरूरत हाेगी. जजाें के अनुसार, न्यायिक हस्तक्षेप नहीं हाेता ताे राज्य सरकार सैंथल मामले काे दफन करना चाहती थी. जजाें ने कहा कि मंत्री, नाैकरशाह और संपन्न लाेगाें के मुकदमाें में जनता में यह धारणा है कि सिर्फ अभियाेजन पक्ष और सरकारी वकील के माध्यम से न्याय मिलना मुश्किल है.
जजाें की कठाेर टिप्पणी की तसदीक मुंबई के पूर्व पुलिस कमिश्नर और भाजपा नेता सत्यपाल सिंह के बयानाें से हाेती है. उनके अनुसार, मालेगांव विस्फाेट मामले सहित कई मामलाें में राजनीतिक लाभ से प्रेरित जांच में सबूताें काे गढ़ा जा रहा था. सनद रहे कि संविधान के अनुसार पुलिस का विषय राज्य सरकाराें के अधीन आता है. कानून केअनुसार लाखाें अपराधी छूट जाएं, लेकिन एक निरपराध काे सजा नहीं हाेनी चाहिए.यातना देकर लिए गए इकबालिया बयानाें से मीडिया में सुर्खियां ताे बन सकती हैं, लेकिन अदालत में मामले काे टिकाने के लिए ठाेस सबूत पेश करने की जिम्मेदारी अभियाेजन पक्ष यानी जांच एजेंसी और राज्य सरकार की हाेती है. बचाव पक्ष की कमजाेरी के आधार पर आराेपियाें काे सजा नहीं दी जा सकती. परिस्थितिजन्य साक्ष्याें के आधार पर दाेषी ठहराने के लिए सुसंगत तथ्य, साक्ष्याें की श्रृंखला और निर्णायक साक्ष्य जरूरी हैं.
मालेगांव मामले में बरी हुए समीर कुलकर्णी ने कहा कि बचाव और अभियाेजन, दाेनाें पक्ष मुकदमाें काे लंबा खींचना चाहते हैं. उनके अनुसार, सह-आराेपियाें ने वकील नहीं रखा हाेता, ताे मुकदमा 15 साल पहले खत्म हाे गया हाेता. उसी स्निके का दूसरा पहलू सुरेंद्र काेली है. उसने अपने मामले की खुद ही पैरवी करते हुए अभियाेजन पक्ष की जांच में खाेट काे उजागर कर दिया. निरक्षर काेली जेल में रहकर साक्षर बना और कानून की किताबाें की पढ़ाई की.उसने फाेरेंसिक लैब, विकास प्राधिकरण, अस्पताल और पुलिस विभागाें में एक हजार से ज्यादा आरटीआई लगाकर सरकारी विभागाें के जवाब और सीबीआई की चार्जशीट में विसंगतियाें काे उजागर किया.एनआईए की विशेष अदालत के फैसले के बाद महाराष्ट्र सरकार की एटीएस एजेंसी की साख पर सवाल खड़े हाे रहे हैं.
अदालत से पहले मकाेका के आराेप खारिज हाे गए और फिर यूएपीए की मंजूरी काे अवैध और खामियाें से भरा माना गया. पंचनामे में गल्तियां, गवाहियाें में विराेधाभास, मूल दस्तावेज गायब हाेने और घायलाें के फर्जी प्रमाण-पत्राें पर अदालत ने एटीएस काे फटकार लगाई. काॅल डाटा रिकाॅर्ड (सीडीआर) के साथ जरूरी 65- बी के सर्टिफिकेट और नार्काे टेस्ट रिपाेर्ट काे पेश नहीं करने का फायदा आराेपियाें काे मिला. केंद्रीय एजेंसी एनआईए ने राज्य की एटीएस पर सबूत गढ़ने का आराेप लगाया था.उनका धीरे-धीरे खुलासा हाेने पर यह साफ हाे रहा है कि किस तरह नेताओं के इशारे पर जांच एजेंसियां राजनीतिक विराेधियाें काे फंसा सकती हैं? मुंबई ट्रेन धमाकाें में 19 साल पहले 187 लाेगाें की माैत के मामले में हाईकाेर्ट ने विशेष अदालत के फैसले काे पलटते हुए 12 अभियुक्ताें काे बरी कर दिया.
आराेपियाें की जेल से रिहाई के बाद सुप्रीम काेर्ट ने हाईकाेर्ट के फैसले पर राेक लगा दी है. पीड़िताें के अनुसार, यह फैसला जख्माें पर नमक छिड़कने जैसा है. लाेग यह सवाल पूछ रहे हैं कि सभी आराेपी बेगुनाह हैं, ताे इतने बड़े आतंकी कृत्य का जिम्मेदार काैन था? मालेगांव मामले में अदालत ने मृतक पीड़ित परिवारजनाें काे दाे लाख रुपये का मुआवजा देने का आदेश दिया है.जिन लाेगाें काे पुलिस और जांच एजेंसियाें ने फर्जी तरीके से फंसाया उनकी पीड़ा, अपमान, यातना, पारिवारिक संकट और सामाजिक कलंक की भरपाई कैसे हाे सकती है? गलत जांच करने वाले लापरवाह अधिकारियाें के खिलाफ कार्रवाई के लिए कानून में प्रावधान हैं. अब सीआरपीसी कानून की धारा-250 और नए बीएनएसएस की धारा-193 के तहत आराेपियाें के लिए भी रिहाई के बाद हर्जाने की मांग हाेने लगी है. -विराग गुप्ता, सुप्रीम काेर्ट के वकील