अब हम बहुध्रुवीय दुनिया की ओर बढ़ रहे हैं ्नया?

    07-Aug-2025
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इस साल जब से डाेनाल्ड ट्रंप अमेरिका के राष्ट्रपति बने हैं, एक खास वर्ग यह प्रसंग बार-बार सामने लाता रहा है कि उनका शासन अमेरिका के नेतृत्व वाली अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था के लिए खतरा है.अमेरिकी राजनीति विज्ञानी जाॅन मियर्सहाइमर का एक बड़ा मशहूर तर्क है कि उदार अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था शुरू से ही असफल हाेने काे अभिशप्त थी, क्याेंकि इसमें अपने विनाश के बीज समाहित थे. हाल के वर्षाें में इस दृष्टिकाेण ने काफी जाेर पकड़ा है. और अब, ट्रंप के फैसलाें ने यह साेचने पर मजबूर कर दिया है कि क्या काेई नई विश्व व्यवस्था उभर रही है.ट्रंप ने एक ऐसी नई अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था की इच्छा जताई है, जहां अमेरिका, चीन और रूस जैसे देश अपनेअपने विशिष्ट भाैगाेलिक क्षेत्राें में प्रभुत्व रखें. यह दृष्टिकाेण बहुध्रुवीय विश्व व्यवस्था से मेल खाता है, जहां काेई एक देश वैश्विक प्रभुत्व नहीं रखता है.
यह व्यवस्था पहले के दाैर से बहुत अलग है, जैसे शीत युद्धकालीन द्विध्रुवीय दुनिया, जिसमें अमेरिका और तत्कालीन साेवियत संघ का प्रभुत्व था, या उसके बाद की एकध्रुवीय अवधि, जब केवल अमेरिका का प्रभुत्व था. आगे विश्व व्यवस्था का क्या हाेगा? हमने हाल के महीनाें में इस बदलाव काे हाेते देखा है. उदाहरण के लिए, ट्रंप ने रूस-यूक्रेन युद्ध काे समाप्त करने का वादा किया था, लेकिन अब वह इसे रूस, यूक्रेन और यूराेप पर छाेड़ रहे हैं. यूराेप, जाे पहले अमेरिका के ही स्वर में बाेलता था, अब स्वतंत्र नीति-निर्माण के संकेत दे रहा है. वह अब पश्चिमी लाेकतांत्रिक सिद्धांताें की रक्षा पर कम और अपने सुरक्षा संबंधी हिताें पर ज्यादा ध्यान दे रहा है.ट्रंप के शासन में अमेरिका इजरायल का समर्थन पूरी तरह जारी रखेगा.
अमेरिका क्षेत्रीय राजनीति में तभी शामिल हाेगा, जब उसके हित दांव पर हाेंगे, जैसा कि हमने हाल ही में ईरानी परमाणु ठिकानाें पर अमेरिकी हमलाें में देखा.खाड़ी देशाें के साथ बढ़ते आर्थिक रिश्ते दिखाते हैं कि इस क्षेत्र में अमेरिकी सहयाेगी प्रमुख आवाज बने रहेंगे, खासकर अब जब ईरान कमजाेर हाे चुका है. फिर भी यह स्पष्ट है कि ट्रंप क्षेत्र में सैन्य और राजनीतिक भागीदारी काे कम करने की इच्छा का संकेत देकर और पिछले प्रशासनाें के राष्ट्र निर्माण प्रयासाें की आलाेचना कर क्षेत्र में अमेरिकी भूमिका काे नया आकार दे रहे हैं.ऐसा लगता है कि ट्रंप प्रशासन मुख्य रूप से आर्थिक संबंधाें के माध्यम से प्रभाव क्षेत्र काे बनाए रखना चाहता है. इस बीच, ग्लाेबल साउथ में अन्य ध्रुव उभर रहे हैं.
रूस और चीन ने अपने बीच सहयाेग काे और भी गहरा किया है और दाेनाें ही खुद काे पश्चिमी देशाें के वर्चस्ववादी रवैये के खिलाफ रक्षक के रूप में पेश कर रहे हैं.ट्रंप की व्यापार नीतियां और कई देशाें पर प्रतिबंधाें ने रूस और चीन के इस दावे काे बल दिया है कि अमेरिका खुद उन नियमाें का पालन नहीं करता, जाे वह दूसराें पर थाेपता है.ट्रंप द्वारा अमेरिकी विकास सहायता (यूएसएआईडी) के फंड में कटाैती ने चीन काे अफ्रीका और अन्य क्षेत्राें में विकास का मुख्य साझेदार बनाने का माैका दिया है. और सुरक्षा के माेर्चे पर, रूस ने अफ्रीका और मध्य पूर्व के कई देशाें में अपनी माैजूदगी बढ़ाई है, जाे अब पश्चिमी देशाें पर कम भराेसेमंद और कम निर्भर हाे गए हैं.इंडाे-पैसिफिक क्षेत्र में चीन का बढ़ता प्रभाव और उसका आक्रामक रुख चर्चा में है.
अमेरिका के पारंपरिक सहयाेगी इस क्षेत्र में उसकी भागीदारी और चीन के उदय काे राेकने की उसकी क्षमता काे लेकर चिंतित हैं. चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने इस माैके का फायदा उठाते हुए वियतनाम, मलेशिया और कंबाेडिया जैसे देशाें में अपनी पैठ बढ़ाई है. लेकिन कई देश चीन के बढ़ते प्रभाव से चिंतित हैं, खासकर फिलीपींस, दक्षिण चीन सागर काे लेकर चीन से भिड़ गया है.हालांकि, सभी देश किसी एक बड़े देश के साथ पूरी तरह नहीं जुड़ रहे हैं. वहीं छाेटे देशाें के लिए यह बहुध्रुवीय विश्व जाेखिम और अवसर दाेनाें लेकर आया है. यूक्रेन इसका एक उदाहरण है, जिसके पास एक संप्रभु राष्ट्र के रूप में अपनी राह चुनने का अधिकार है, लेकिन वह बड़े देशाें की राजनीति में फंस गया है, जिसके विनाशकारी परिणाम हुए हैं.
कुछ छाेटे देश अलग रणनीति अपना रहे हैं, वे अपने तात्कालिक हिताें के आधार पर किसी या किसी अन्य बड़े देश की ओर झुक रहे हैं. उदाहरण के लिए, स्लाेवाकिया नाटाे और यूराेपीय संघ का सदस्य है,लेकिन इसके नेता राॅबर्ट फिकाे ने मई में रूस की विजय दिवस परेड में भाग लिया और राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन से सामान्य रिश्ते बनाए रखने की बात कही. मध्य एशिया में भी रूस, चीन और यूराेप प्रभाव और आर्थिक साझेदारी के लिए हाेड़ कर रहे हैं. लेकिन अगर पुतिन मध्य एशिया के किसी देश पर हमला करते हैं, ताे क्या अन्य बड़े देश हस्तक्षेप करेंगे? यह जवाब देना मुश्किल है. बड़े देश सीधे संघर्ष में शामिल हाेने से हिचकते हैं, जब तक कि उनके मूल हिताें या सीमाओं काे सीधे खतरा न हाे. इसलिए मध्य एशियाई देश कई देशाें के साथ रिश्ते बनाए रखकर अपनी जाेखिम कम कर रहे हैं.
-डी.उबायडुलेविया