
3 सब्जियां... राेटी-दाल-पापड और साथ में छाछ.. इस भाेजन की थाली की कीमत कितनी हाेगी. आप कहेंगे.. 100 रुपए ताे हाेगी. आज की महंगाई के जमाने में. नहीं साहब.. यह ताे वह कीमत हाे गई जाे बाजार की है.. वह कीमत बताइए जाे इंसानियत की हाे.. ताे वह है.. 10 रुपए.. 20 रुपए या 40 रुपए.. या फ्री. एक ही भाेजन की कीमते चार. आपकाे इसका सच जानने गुजरात के माेरबी जाना पडेगा.. वहां 72 साल के बचुदादा चलाते हैं ढाबा. इस छाेटे से ढाबे में 40 सालाें से यह भाेजन इन्हीं कीमताें में मिलता है. जहां करीब 150 लाेग भाेजन राेज करते हैं.. यहां काेई भी व्य्नित भूखा नहीं जाता.. न हाे पैसा ताे भी.
राेज करीब 15 लाेग यहां ऐसे ही आते हैं. जिन्हें यह भाेजन पैसे में नहीं ‘इंसानियत के रेट’ पर मिलता है... रंगपुर गांव के बचुदादा रहते हैं. झाेपड़ी में चलाते हैं ढाबा.. मगर वे वाे प्रेम बांटते हैं भाेजन के रूप में जाे मुकेश अंबानी और इस मुल्क के एक दाे प्रतिशत अमीर नहीं बांट सकते है जाे 77% संपत्ति पर कब्जा किए बैठे हैं. बचुदादा जैसे लाेगाें के बारे में जानकर इन अमीराें का पत्थर दिल पिघलेगा? असंभव ! वास्तव में सच्चे अमीर ताे बचुदादा हैं. इनके जैसे अच्छे दिल वाले ही सच्चे अमीर हाे सकते हैं. वे गरीबाें से प्यार करते हैं. उनका एक ही जीवनमंत्र है. काेई भी आदमी भूखा न हाे! और हर काेई कुछ न कुछ ताे ऐसा कर सकता है...पर वह बचुदादा जैसा नहीं कर सकता.. लेकिन प्यार का एक निवाला यदि हर काेई निकाले ताे पूरी दुनिया के भूखे पेट भर सकते हैं.
और आप जानते हैं. हर भारतीय हर साल 6 से 11 किलाे अनाज बर्बाद करता है. हमारे देश में 50 हजार कराेड़ रुपए के मूल्य के बराबर गेहूं बर्बाद हाे जाता है. 2.10 कराेड़ टन अनाज ताे भंडारण की सुविधा के अभाव में नष्ट हाे जाता है. सड़ जाता है. 21 कराेड़ टन दाल (ध्यान रखें भारत में दाल की पैदावार कम हाेने से हमें इम्पाेर्ट करनी पड़ती है.) 12 कराेड़ टन फल व 21 कराेड़ टन सब्जियां हर साल बर्बाद हाेती हैं. इनकी कीमत भी 50 हजार कराेड़ रुपए से ज्यादा है. जानकाराें के अनुसार दाे लाख कराेड़ रुपए के बराबर की फल-सब्जियां नष्ट हाेती हैं. शादिब्याह में 40% भाेजन फेेंक दिया जाता रहा है. दूसरी ओर 12 कराेड़ से ज्यादा बच्चे स्कूल सिर्फ इसीलिए जाते रहे, क्योंकि वहां दाेपहर में ‘खिचड़ी’ यानी मिड-डे मील मिलता था.
अभी फिर स्कूल खुलेंगे ताे वहां जाने का यह सबसे बड़ा आकर्षण हाेगा. करीब 10 लाख बच्चे हमारे देश में ऐसे हैं, जाे भूख के कारण 5 वर्ष की उम्र से कम में मर जाते हैं. अगर हम यह नष्ट हाेने वाला भाेजन बचाएं ताे 36 कराेड़ लाेगाें काे भरपेट भाेजन मुफ्त में सालभर मिल सकता है.
दुनियाभर में भाेजन फेंकने वालाें की कमी नहीं है. जबकि 87 कराेड़ लाेग राेज रात काे भूखे साेते हैं. हरसाल दुनिया में करीब 400 कराेड़ टन भाेजन बनता है, इसमें से 33% भाेजन फेंका, खराब किया या नष्ट हाे जाता है. स्पष्ट है कि इतने में करीब 200 कराेड़ लाेगाें का पेट भर सकता है. वर्ल्ड फूड आर्गेनाइजेशन, इंटरनैशनल एग्री कल्चर डेवलपमेंट फंड और वर्ल्ड फूड प्राेग्राम ने मिलकर स्टडी की थी, जिसमें पता चला कि ‘भारत में अमीराें की बढ़ती संख्या व बढ़ती अमीरी ताे एक तरफा है, यह जितनी बढ़ती है, भाेजन की बर्बादी उतनी ज्यादा बढ़ती जाती है. शादी-ब्याह की जगह और मंदिराें के बाहर भिखारी इसीलिए नजर आते हैं. हमारे देश में 49% लाेगाें काे सालभर काम नहीं मिलता. ये सब अस्थायी मजदूर हैं. साल भर ्नया 100 दिन भी काम मिल जाए ताे बहुत है. 4 लाख परिवार कूड़ा-कचरा बीनकर जीते हैं. 6.68 लाख लाेग भिखारी हैं. पूरा देश प्रति व्य्नित 11254 रुपए/ महीना औसत इन्कम पर जीता है, वास्तविकता यह नहीं है, क्योंकि 90% लाेगाें की इन्कम में से 8470 रुपए 10% अमीराें की तिजाेरियाें में जा रहे हैं. काेई सरकार या काेई औसत आंकड़ा इस सच काे नहीं बताता कि अमीर और अमीर कैसे हुआ? गरीब और गरीब कैसे हुआ? आंकड़ाें में ताे सरकार के दावे रहते हैं कि महंगाई दर का थाेक सूचकाक गिरा... बाजार में जाइए ताे पता चलता है कि सब्जियां 100 रुपए किलाे... फल 200 रुपए किलाे. इसीलिए शायद कहा जाता है, ‘दिवाली दिवालिया निकालकर जाती है... लेकिन तब क्या करें जब साल भर महंगाई दिवालिया बनाए रखे? अमीराें का क्या है? उनके लिए महंगाई बस चाय- चर्चा या गरीबाें के शाेषण का बहाना रहता है. अमीर झूठ पर.. मध्यम वर्ग सपनाें पर और गरीब सच पर जीता है. यदि आज वे क्रांतिकारी हाेते जिन्हाेंने आजादी के लिए बलिदान दिए, ताे वे कितने शर्मिंदा हाेते..कि वे जिस देश का सपना देखते थे.. वह देश ताे सपनाें से कभी बाहर आया ही नहीं, बल्कि जाे देश है, उसमें 88 कराेड़ लाेगाें का जीवन सस्ते और मुफ्त मिलने वाले सरकारी अनाज से चलता है.
साेचिए... यह जाे दुनिया इंसानाें की दाे राेटी के लिए तरसती है, क्या हमारी हाे सकती है या हमारी हाेनी चाहिए... विश्व अर्थ व्यवस्था के अनुसार हर व्यक्ति की सालाना आय 14 लाख रुपए हाेनी चाहिए यानी हर महीने 1 लाख 16 हजार रुपए...राेज 3860 रुपए. क्या ऐसा है? यदि ऐसा हाेता ताे यही दुनिया भुखम री व गरीबी में क्याें जीने मजबूर हाेती? सच्चाई यही है साहब कि कुछ लाेग...बाकी लाेगाें के जीने का हक छीन लेते हैं..पैसे की ताकत.. सत्ता की ताकत.. लाठी की ताकत से. और यह आज से नहीं, जब से मनुष्य सभ्य हुआ... तथाकथित सुसंस्कृत हुआ.
तकनीक-उद्याेगाें की भरमार हुई. चांद पर आदमी पहुंचा.. मंगल पर पहुंचने के प्राेग्राम है. तब से आप पाएंगे कि मानव का विकास... मानव के शाेषण का पर्याय बनता चला गया. हम इंसान यह भी भूल गए कि वह दूसरा इंसान ही है, जिसके हक की राेटी... जिसके हक का कपड़ा... जिसके हक की शिक्षा और दवा हमने छीन ली है. यह जीना भी काेई जीना है? एक जगह पढ़ा कि ‘दीया जलाने का हक उसे है, जिसने किसी जरूरतमंद काे कुछ दिया हाे.’ हाे सकता है, ‘दीया’ शब्द ‘दान’ से ही बना हाे. दीया भी ताे राेशनी देता है... उसका अस्तित्व ही देने पर आधारित है. उन्हें दीया जलाने का हक नहीं जाे चालाकी और मक्कारी से र्सिफ लेते हाें. और ऐसे मक्काराें की इस देश इस दुनिया में कमी नहीं है.
बचु दादा की तरह आपकाे कुछ लाेग मिल जाएंगे... काेई साेनू सूद भी मिल जाएगा जाे जानता है कि ‘पैसा आदमी के लिए है, आदमी पैसे के लिए नहीं, जब तक नेता साेचेगा कि आदमी ‘वाेट’ है, अमीर साेचता है कि आदमी ‘पैसा’ है, मालिक साेचता है कि आदमी ‘दास’ है...तब तक दिवाली आएगी मिट्टी के दीए भी जलेंगे... मगर इंसानियत का दिवाला निकलता रहेगा. पैसा केंद्र में और आदमी परिघि पर रहेगा
- आर.के.श्री. मानवेंद्र