मीरा कहती हैं- मेरी आंखें देखते हैं, राे-राे कर लाल हाे गई हैं. ऊंची चढ़-चढ़ पंथ निहारूं. और जितना ऊंचा बन सकता है उतनी चढ़ कर तुम्हारी राह देखती हूं. क्याेंकि हाे सकता है, नीचे से देखूं, तुम दिखाई न पड़ाे.
यह ऊंचे जाने का अर्थ तुम्हें अगर समझना हाे ताे इसके लिए ठीक-ठीक व्यवस्था याेग में है. जिनकाे याेगियाें ने सात चक्र कहे हैं, वे सीढ़ी हैं तुम्हारे भीतर ऊंचे चढ़ने की. अगर तुमने मूलाधार से देखा ताे परमात्मा दिखाई नहीं पड़ेगा.
मूलाधार से ताे र्सिफ कामवासना दिखाई पड़ती है. अगर तुम पुरुष हाे ताे स्त्री दिखाई पड़ेगी, अगर स्त्री हाे ताे पुरुष दिखाई पड़ेगा. अगर मूलाधार से देखा ताे परमात्मा का स्त्री-पुरुष रूप दिखाई पड़ेगा, इससे ज्यादा नहीं दिखाई पड़ेगा. वह सबसे नीची सीढ़ी है. वहां परमात्मा इसी ढंग से दिखाई पड़ता है. अगर थाेड़े ऊपर बढ़े स्वाधिष्ठान से देखा, ताे स्त्री या पुरुष की देह ही नहीं दिखाई पड़ेगी, स्त्री का मन भी दिखाई पड़ेगा. थाेड़ा सूक्ष्म हुई दृष्टि.
मूलाधार से जाे देखता है, उसे र्सिफ देह दिखाई पड़ती है. जाे स्वाधिष्ठान से देखता है, उसे स्त्रियाें का मन भी दिखाई पड़ता है. वे र्सिफ देह मात्र नहीं है. और जाे थाेड़ा और ऊपर चढ़ा मणिपुर से देखा, उसे स्त्री की आत्मा भी दिखाई पड़ेगी. ये तीन नीचे के चक्र हैं.
चाैथा चक्र है- अनाहत, हृदय- जिसकाे मीरा छाती कह रही है.जाे हृदय से देखेगा, वह कामवासना से मुक्त हाे गया. उसके जगत में, उसके जीवन-चैतन्य में प्रेम का आविर्भाव हुआ. अब उसकी आंखाें पर प्रेम की छाया हाेगी. अब भी वही लाेग दिखाई पड़ेंगे लेकिन अब न उनमें देह दिखाई पड़ती, न मन दिखाई पड़ता, न आत्मा दिखाई पड़ती, अब उनमें परमात्मा की झलक मिलनी शुरू हाेती है. झलक -कभी दिखती, कभी खाे जाती है.
जैसे रात में बिजली काैंध जाये, िफर अंधेरा हाे जाता है, एक क्षण भर काे राेशनी, िफर अंधेरा, ऐसी झलकें हाेंगी. फिर पांचवां चक्र है- विशुद्ध. झलकें देर-देर तक ठहरती हैं. प्रकाश के क्षण बढ़ने लगते हैं, अंधेरे के क्षण कम हाेने लगते हैं.
िफर छठवां चक्र है- आज्ञा. अब प्रकाश बिल्कुल थिर हाेने लगता है, लेकिन अभी भी कभी-कभी अंधेरा उतर आता है. कभी-कभी. जैसे पहले कभी-कभी राेशनी उतरती थी, अब कभी-कभी अंधेरा उतरता है. दिनाें गुजर जाते हैं, मन रसलीन रहता है, भाव में डूबा रहता है. लेकिन एकाध दिन चूक हाे जाती है, पैर िफसल जाता है. उसकाे मीरा ने कहा है- याे मन मेराे बड़ाे हरामी! मंदिर चढ़ते-चढ़ते पैर िफसल जाता है. मगर यह अब कभी-कभी हाेता है. साधारणत: सजगता बनी रहती है. िफर सातवां चक्र है- सहस्रार.
वह आखिरी सीढ़ी है. उस पर से खड़े हाेकर जाे देखता है, उसे परमात्मा के सिवाय कुछ भी नहीं दिखाई पड़ता. मूलाधार से जाे देखता है, उसे संसार दिखाई पड़ता है, परमात्मा दिखाई नहीं पड़ता. और सहस्रार से जाे देखता है, उसे परमात्मा दिखाई पड़ता है, संसार दिखाई नहीं पड़ता. इसलिए ताे ज्ञानी और अज्ञानियाें के बीच बात नहीं हाे पाती, बड़ी मुश्किल है बात.