तुम संसार को झूठ मानते थे; उनकी टक्कर में तुम्हें हारना पडा, जो संसार को यथार्थ मानते थे. क्योंकि उन्होंने यथार्थ के ढंग से युद्ध किए और तुम्हारे लिए तो बात सपने की थी; हार हुई कि जीत, सब बराबर. हारे तो भी सपना है, जीते तो भी सपना है. और सभी को मिट्टी में मिल जाना है - भिखमंगे को भी और सम्राट को भी. तुम ऐसी-ऐसी अच्छी बातें कहने में कुशल हो गए! तुमने थोथी बातों को ऐसे सुंदर शृंगार दिए! तुमने अपनी मूढता को ऐसी बातों में ढांका, ऐसा आडंबर पहनाया. उसका तुमने फल भोगा. किसी और ने तुम्हें गुलाम नहीं किया. तुम गुलाम होने को आतुर थे. यह जिम्मेवारी किसी और पर मत छोडना. यह जिम्मेवारी तुम्हारी है.
और जब तक यह देश जगत को यथार्थ नहीं मानेगा, तब तक इस देश में सौभाग्य का उदय नहीं हो सकेगा. क्योंकि जो यथार्थ ही न हो जगत, तो विज्ञान कैसे जन्मेगा? और विज्ञान शक्ति है. सपनों का तो क्या विज्ञान बनेगा! कैसी भौतिकी, कैसा रसायनशास्त्र, कैसा गणित? सपनों का तो कोई अस्तित्व ही नहीं है. तो तुम कैसे न्यूटन पैदा करोगे, कैसे एडीसन पैदा करोगे, कैसे आइंस्टीन पैदा करोगे, कैसे रदरफोर्ड पैदा करोगे? अगर जगत माया है तो इन सबकी कोई जरूरत नहीं. तुम पैदा करोगे कहीं मुक्तानंद, कहीं अखंडानंद-भोंदुओं की एक जमात, जो उन्हीं-उन्हीं बातों को तोतों की तरह तुम्हें दोहराते रहें और तुम्हारी खोपडी में वही गोबर भरते रहें सदियों पुराना और तुम्हें गौमूत्र पिलाते रहें, क्योंकि यह तो पंचामृत है! गोबर मिला लो, गौमूत्र, दूध, घी, दही, पांचों को मिला कर गटक जाओ--पंचामृत हो जाता है! और गऊ की पूजा करो, क्योंकि वैतरणी जब पार करोगे तो यही गऊमाता, इसकी ही पूंछ पकड कर वैतरणी पार कर पाओगे. सो गऊमाता की पूजा करो, संसार माया है ऐसा समझो, हार-जीत में कुछ सार नहीं, धन व्यर्थ है. जब धन व्यर्थ है तो पैदा कैसे करोगे? व्यर्थ को कोई पैदा करने में लगता है?
तुम्हारी गुलामी के बीज शंकराचार्य के इस वक्तव्य में हैं.-ब्रह्म सत्य, जगन्मिथ्या. यह तुम्हारी गुलामी का बीज-मंत्र है: जगत मिथ्या है, ब्रह्म सत्य है. तो स्वभावतः जो मिथ्या है, उसमें क्या छीना-झपटी करनी? जो है ही नहीं, उसके लिए क्या लडना? आए सिकंदर, आए नादिरशाह, आए चंगेजखान, क्या पडी हमें! सपनों को लूट कर ले जाएं, ले जाएं! पागल हैं, अज्ञानी हैं! हम तो ज्ञानी, अपनी धूनी रमाए बैठे रहेंगे! हम तो अपनी माला पर राम-राम जपते रहेंगे! हम तो आंख बंद रखेंगे. ये बाहर के ठीकरे जिनको इकट्ठे करने हों वे कर लें!
और फिर तुम कहते हो कि हम सदियों से गरीब रहे. कौन जिम्मेवार है? चंगेजखान नहीं, तैमूरलंग नहीं, नादिरशाह नहीं, सिकंदर नहीं-शंकराचार्य तुम्हारी गुलामी की आधारशिला रख गए. और एकाध शंकराचार्य होते तो ठीक था, सदियों-सदियों से उसी तरह के लोग, वही बकवास! आज भी वही बकवास जारी है. और मगन भाव से लोग पी रहे हैं. इसी कूडा-करकट को! इसी को निचोड-निचोड कर, इन्हीं शास्त्रों को दुह-दुह कर अभी भी सत्संग चल रहा है! बीसवीं सदी में भी इस देश में अभी अमावस की रात है, सुबह नहीं हुई.
सुबह उस दिन होगी जिस दिन तुम इस सूत्र को स्वीकार करोगे कि जगत भी सत्य है और ब्रह्म भी सत्य है. मैं तुमसे यही कहना चाहता हूं, दोनों सत्य हैं. और दोनों ही सत्य हों तो ही सत्य हो सकते हैं, एक सत्य नहीं हो सकता. क्योंकि ब्रह्म है भीतर और जगत है बाहर.