प्रश्न: भगवान, अतीत के सभी ज्ञानी, जिनमें पिछली सदी के परमहंस रामकृष्ण काे भी सम्मिलित करना उचित हाेगा, स्त्री के बहुत विराेध में थे. इसका क्या कारण हाे सकता है?
मैं तुम्हारे अतीत के ज्ञानियाें काे जितना ही विचारता हूं, साेचता हूं, उतनी ही एक बात साफ हाेती चली जाती है कि उन साै में से निन्यानबे ताे र्सिफ तुम्हारी मान्यता के कारण ज्ञानी हैं. शायद एकाध सच में जागा है. और जाे जागा है उसकी भी मजबूरी है. मजबूरी है यह कि उसे अपने युग की भाषा में बाेलना पड़ेगा. साै में से निन्यानबे ताे जागे हुए नहीं हैं. यह कहता हूं ताे लाेगाें काे कष्ट हाेता है. तुम कहाे ताे मैं उनके नाम भी गिना दूं, लेकिन लाेगाें की भावनाओं काे बड़ी ठेस लगती है. लाेगाें की भावनाएं क्या हैं? छुई-मुई! तुमने लजनू नाम का पाैधा देखा? जरा हाथ से छू दाे कि बस लाज खा जाता है. पत्ते कुम्हला जाते हैं, मुरझा जाते हैं, डाल झुक जाती है. लजनू-ऐसी दशा है लाेगाें की. तैयार ही बैठे हैं लाज खा जाने काे. तैयार ही बैठी है उनकी भावना ठेस खा जाने काे. उघाड़े ही बैठे हैं कि आ बैल, सींग मार! और फिर चीख-पुकार मचाते हैं.
साै में निन्यानबे ताे तुम्हारे ज्ञानी ज्ञानी नहीं हैं, पंडित हैं, जानकार हैं, प्रबुद्ध नहीं. और वह जाे एक प्रबुद्ध भी है, उसकी भी मजबूरी है. वह भी अपने युग की ही भाषा में बाेल सकता है. दूसरे युग की भाषा में बाेलेगा भी कैसे? आखिर महावीर बाेलेंगे ताे पच्चीस साै साल पहले की भाषा में ही बाेलेंगे. मैं जिस भाषा में बाेलता हूं उसमें कैसे बाेल सकते हैं? मेरे बाद पच्चीस साै साल बाद जाे लाेग बाेलेंगे, निश्चित ही वे अपने समय की भाषा में बाेलेंगे. वे मेरी भाषा में नहीं बाेल सकेंगे. बाेलना ताे किसी भाषा में पड़ेगा और भाषा के अपने निहित अर्थ हाेते हैं और भाषा र्सिफ वही नहीं हाेती जाे तुम बाेलते हाे, जाे तुम साेचते हाे, विचारते हाे. भाषा के कारण ही ताे दुनिया में तीन साै धर्म हैं. ये विभिन्न भाषाओं के कारण. ये बाेलने के अलग-अलग लहजे, अलग-अलग शैलियां, अलग-अलग समयाें की शैलियां.
रामकृष्ण परमहंस वही पुरानी भाषा में बाेल रहे हैं, यद्यपि वे जाग्रत पुरुष हैं. उन साै लाेगाें में से एक में मैं उनकी गिनती करता हूं. रामकृष्ण परमहंस और महर्षि दयानंद दाेनाें समकालिक थे. महर्षि दयानंद की गिनती मैं निन्यानबे लाेगाें में करता हूं, परमहंस रामकृष्ण की गिनती मैं एक व्यक्ति में करता हूं. लेकिन बेपढ़े-लिखे थे. आधुनिक बिलकुल नहीं थे. दूसरी कक्षा तक पढ़े थे. ग्रामीण थे, ग्राम्य उनकी भाषा है. यह जान कर तुम्हें हैरानी हाेगी, हालांकि काेई किताब यह लिखती नहीं, लेकिन पीढ़ी दर पीढ़ी जिन लाेगाें ने रामकृष्ण से संबंध रखा है, उनसे मुझे पता चला है. मेरे एक प्राेेसर उस परिवार में से आते हैं जिनके दादा-परदादा रामकृष्ण के सत्संगियाें में से थे. ऐसे बंगाल में बहुत से परिवार हैं जिनकी पिछली पीढ़ियाें में से किसी ने रामकृष्ण का सत्संग किया. उन सबका कहना है कि वे मां-बहन की गाली भी देते थे.
अब तुम बहुत चाैंकाेगी, सुलाेचना भारद्वाज, कि रामकृष्ण परमहंस! और मां-बहन की गालियां देते थे! मगर परमहंसाें का कुछ न पूछाे. ग्राम्य थे और आधुनिकता से ताे बिलकुल परिचित नहीं थे. इसलिए भाषा जाे बाेल रहे थे वह कम से कम दाे-ढाई हजार साल पुरानी थी. उस भाषा में अध्यात्म पर्यायवाची था: कामिनी-कंचन का त्याग कराे. हालांकि इस बात में कुछ सच्चाई है, मगर सच्चाई कुछ ऐसी है कि समझनी पड़े. अगर तुम मुझसे पूछाे ताे मैं कहूंगा कि जाे व्यक्ति अध्यात्म काे उपलब्ध हाेता है, वह कामिनी और कांचन का अतिक्रमण कर जाता है. मैं भी वही कह रहा हूं. कामिनी और कांचन का अतिक्रमण कर जाता है, जाे व्यक्ति समाधि काे उपलब्ध हाेता है.
जिस व्यक्ति ने स्वयं के आनंद काे पा लिया वह क्याें किसी और में आनंद खाेजेगा? आखिर स्त्री में या पुरुष में हम आनंद क्याें खाेजते हैं? क्याेंकि खुद दुखी हैं. कहीं और से मिल जाए. पुरुष स्त्रियाें की तरफ देख रहे हैं, स्त्रियां पुरुषाें की तरफ देख रही हैं कि आनंद किसी से मिलेगा. मां-बाप बच्चाें की तरफ देख रहे हैं, बच्चे मां-बाप की तरफ देख रहे हैं कि आनंद किसी से मिलेगा. सब किसी और की तरफ टकटकी लगाए बैठे हैं. और आनंद का स्राेत भीतर है. और जब भीतर के स्राेत का पता चल जाता है ताे स्वभावतः बाहर की आकांक्षा अपने आप विलुप्त हाे जाती है.