दुनिया छूट जाती है लेकिन संसार नहीं छूट पाता

31 May 2023 16:19:10
 

Osho 
 
कुछ लाेग हैं, यहां संसार में रहते हैं और संसार काे अपने में नहीं रहने देते, वे ही संन्यासी हैं. और कुछ लाेग हैं, जाे मर भी जाते हैं ताे भी संसार उनके भीतर बसा ही रहता है.बाद मरने के भी दिल लाखाें तरह के गम मेें हैं. हम नहीं दुनिया में लेकिन एक दुनिया हम में हैं.मर जाते हैं, दुनिया से छूट जाते हैं; मगर दुनिया उनके भीतर बसी है, उससे कैसे छूटें? वे जाे भाग जाते हैं संसार से, र्सिफ भगाेड़े हैं, संन्यासी नहीं वे अपनी गुाओं में बैठकर भी संसार की ही चिंता करते हैं, यही की िफक्र में लगे रहते हैं, यहीं का हिसाब-किताब बिठाते रहते हैं.और वहां भी संसार ही िफर बना लेंगे.बनाना ही पड़ेगा. क्याेंकि संसार से भाग जाओगे, लेकिन मन कैसे बदलेगा? उसी मन ने यहां संसार बनाया था, वही मन वहां संसार बना लेगा.
 
मैं एक मित्र काे जानता हूं, उन्हें मकान का शाैक है. ऐसा शाैक, खुद ताे अपना मकान उन्हाेंने बनाया ही सुंदर, बहुत सुंदर! वे प्लेटाे के इस कथन में विश्वास करते थे, प्लेटाे ने कहा है कि हर आदमी काे कम-से-कम एक सुंदर मकान पृथ्वी पर बनाना चाहिए. प्लेटाे काे भी सुंदर मकानाें में बड़ा रस था. इस सज्जन ने अपनी दीवाल पर प्लेटाे का वचन लिख रखा था कि हर आदमी काे कम-से-कम मरने के पहले संसार में एक सुंदर मकान बनाना चाहिए...उन्हाेंने एक नहीं, कई मकान बनाए.एक बन जाता कि उसकाे बेचकर दूसरा बनाते. ऐसा ही नहीं, मित्राें के मकान बनते हाेते ताे भी वे दिन रात वहां खड़े रहते.िफर वे संन्यासी हाे गए...मेरे संन्यासी नहीं भगाेड़े संन्यासी हाे गए. काेई दस साल बाद मैं उनके आश्रम के पास से गुजरता था, ताे मैंने कहा जरा देख ताे लूं कि हालतें क्या हैं.
 
बस, वे छाता लगा, भरी दाेपहरी में मकान बनवा रहे थे. मैंने उनसे पूछा कि भले मानुस, यह क्या कर रहे हाे? उन्हाेने कहाः आश्रम बनवा रहा हूं.! जरा देखाे भी! जिंदगी-भर जाे मकान बनाए, उन सबकी कला इसमें ढाल दी है. एक चीज रहेगी! मैंने कहाः तुम संसार से छाेड़कर भाग आए, मगर तुम ताे तुम हाे. वहा मकान बनवाते थे, क्या हर्ज था, मकान ही बनावाते रहते! र्सिफ मकान का नाम आश्रम हाे गया ताे फर्क हाे गया? मन वही है ताे िफर संसार वही का वही निर्मित ही जाएगा.मन में सारे बीज हैं. मन से छुटकारा संन्यास है; संसार से छुटकारा नहीं.
 
मन गया कि संसार अपने-आप चला जाता है. इस मन के जाने काे, मन की इस मृत्यु काे मलूकदास ने बड़े प्यारे शब्दाें में प्रकट किया है-ठीक वैसे प्यारे शब्दाें में जैसा तुम्हें याद हाेगा गाेरखनाथ का वचन. गाेरख ने कहा हैः मराै है जाेगी मराै, सारे मरन है मीठा.
तिस मरनी मराै जिस मरनी मर गाेरख दीठा.मराै हे जाेगी मराै!.... मरने की कला है, बड़ी से बड़ी कला है. मराै हे जाेगी मराै, मराै मरन है मीठा. बहुत मिठास है मरण में.लेकिन किस मरण में? एक ताे यह सारी दुनिया है, जहां मुर्दे घूम रहे हैं, इस मृत्यू की बात नहीं हाे रही है. यह किसी और ही मृत्यु की बात हाे रही है. उस मृत्यु की जाे महाजीवन से जाेड़ देती है; शाश्वत मिठास बरस जाती है; एक सुगंध उतर आती है-सत्य की, साैंदर्य की, शिवत्व की, अमरत्व की.
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