क्रोध आग है क्षमा बाग है : रत्नसेनसूरीश्वरजी

खानदेश मराठा भवन में पर्यूषण पर्व के पहले दिन आयोजित धर्म सभा में कहा

    13-Sep-2023
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निगड़ी, 12 सितंबर (आज का आनंद न्यूज नेटवर्क)
 
क्षमापना पांचों कर्तव्यों के मध्य है. क्षमापना के दोनों और दो-दो कर्तव्य है. हमारे जीवन की तीन अवस्थाओं (बाल्यावस्था, युवावस्था और वृद्धावस्था) में से युवावस्था ज्यादा कीमती है. इसी उम्र में कुछ सर्जन किया जा सकता है. इन तीनों में से मध्याह्न में ही सूर्य की तेजस्विता अपनी चरम सीमा पर होती है. इसी तरह पांचों कर्तव्यों के मध्य में स्थित क्षमापना का भी उतना ही महत्व है. क्षमा-याचना एवं क्षमा- प्रदान जैन-शासन के आदर्श है. क्षमापना ही पर्वाधिराज का प्राण है. निष्प्राण देह की कोई कीमत नहीं. बिना क्षमापना के आराधना की कोई कीमत नहीं. क्षमापना का अर्थ है वैरभाव का विसर्जन और प्रेम एवं मित्रता की स्थापना. गलती करना, मनुष्य का स्वभाव है परन्तु दूसरों की गल्तियों को उदार मन से माफ करना दैवत्व है.क्रोध का प्रत्यस्त्र है क्षमा. क्रोध है आग और क्षमा है शीतल जल . आग की अपेक्षा पानी की शक्ति ज्यादा है. क्षमा के समक्ष क्रोध टीक नहीं सकता है .
 
क्षमावान आराधक बनता है, क्रोधी विराधक बनता है . क्रोधे क्रोड पूरवतणुं, संयम फल जाय क्रोध करने से एक करोड पूर्व तक की हुई संयम साधना भी निष्फल चली जाती है. जिसके हृदय में वैरभाव की आग प्रज्वलित रहती है, वह आत्मा अध्यात्म और आत्महित के मार्ग पर आगे नहीं बढ़ सकती है. क्रोध के तीव्र आवेग के कारण राजगृही का द्रमक भी सातवी नर्क में पहुँच गया. क्रोध इस लोक में भी दुश्मनी पैदा करता है और परलोक में भी दुर्गति की परंपरा को बढ़ाता है. अट्ठम तप पर्वाधिराज का चौथा कर्तव्य है अट्ठम तप. अट्ठम का अर्थ हैं एक साथ तीन उपवास. उपवास अर्थात्‌‍ आत्मा के समीप वास करना.तप धर्म की आराधना का मतलब हैं आहार की आसक्ति पर विजय प्राप्त करने के लिए प्रयत्नशील बनना. आत्मा का मूल स्वभाव अणाहारी है.
 
इस अणाहारी पद की प्राप्ति के लिए तप धर्म की. आराधना अति आवश्यक हैं. कर्मरुप इंधन को जलाकर भस्म कर देने के लिए तप अग्नि समान हैं. परन्तु हाँ एक बात अवश्य ध्यान में रखनी हैं. यह तप शल्य रहित होना चाहिए. शल्ययुक्त तप की कोई कीमत नहीं. लक्ष्मणा साध्वी ने मायापूर्वक पचास वर्ष तक घोर तपश्चर्या की, लेकिन वह पाप में से मुक्त न हो सकीं. इसका एकमेव कारण मायाशल्य ही था.किसी चिंतक ने ठीक ही कहा है कि तप तो आत्मा का आहार हैं. तप से शरीर शुद्ध होता हैं और मन पवित्र बनता हैं. मन को निर्विकारी और इन्द्रियों पर विजय प्राप्त करने हेतु तप अमोघ उपाय है. मुमुक्षु आत्मा को महापर्व के दौरान अट्टम तप एवं अन्य दिनों में भी धर्म की आराधना अवश्य करनी चाहिए. चैत्य परिपाटी पर्वाधिराज का पांचवा कर्तव्य हैं चैत्य परिपाटी.
 
चैत्य यानी जिनालय. महापर्व पर्यूषण के दिनों में अपने नगर में जितने भी चैत्य हों, सबके दर्शन अवश्य करने चाहिए. चैत्यों में विराजित परमात्मा के दर्शन करने से दर्शन-शुद्धि होती हैं. सम्यग्दर्शन की प्राप्ति एवं शुद्धि के लिए जिन-दर्शन अत्यंत आवश्यक हैं.जिन प्रतिमा परमात्मा के वीतराग-स्वरूप की प्रतीक हैं. राग एवं द्वेष के किसी भी चिन्ह से रहित परमात्मा की प्रतिमा के दर्शन करने से मन पवित्र होता हैं.परमात्मा की प्रतिमा एक दर्पण हैं . जिसमें हमें हमारा आत्मस्वरूप दिखाई पड़ता हैं. परमात्मा के दर्शन भी परमात्मा बनने हेतु ही हैं. इन पांच पवित्र कर्तव्यों का पालन करने से हम आत्म कल्याण के पथ पर आगे बढ़ सकेंगे.