बिहार की राजनीति में विभिन्न पार्टियाें के वाेट प्रतिशत और सीटाें की संख्या के बीच एक दिलचस्प ट्रेंड देखने काे मिलता रहा है और कई बार ज्यादा मत प्रतिशत दर्ज करने वाली पार्टी काे भी कम सीटाें से संताेष करना पड़ा. दरअसल, बिहार में गठबंधन की जटिल राजनीति और सीट बंटवारे की रणनीति ने इस सामान्य धारणा काे बार-बार गलत साबित किया है कि ज्यादा मत प्रतिशत हासिल करने वाली पार्टी काे अधिक सीटें मिलेगी.आमताैर पर यह धारणा है कि किसी राजनीतिक दल के वाेट प्रतिशत बढ़ने का सीधा लाभ उसे सीटाें की बढ़ाेतरी के रूप में मिलेगा, लेकिन बिहार की चुनावी राजनीति इस सिद्धांत काे अक्सर चुनाैती देती रही है.
बीते तीन विधानसभा चुनावाें का आंकड़ा देखे ताे यह साफ हाेता है कि राष्ट्रीय जनता दल (राजद) और भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) जैसी बड़ी पार्टियाें काे वाेट प्रतिशत बढ़ने के बावजूद सीटाें में गिरावट का सामना करना पड़ा है.जगजीवन राम संसदीय अध्ययन और राजनीतिक शाेध संस्थान के पूर्व निदेशक डाॅ. नरेंद्र पाठक का मानना है कि यह परिस्थिति मुख्य रूप से गठबंधन राजनीति और सीटाें के बंटवारे की रणनीति से जुड़ी है, जिसने बड़े दलाें काे भले अधिक वाेट दिलाये, लेकिन सीमित सीटाें पर चुनाव लड़ने के कारण कुल जीत की संख्या में गिरावट दर्ज की गई.
बिहार विधानसभा चुनाव के दाैरान राजद के प्रदर्शन पर नजर डालें ताे यह ट्रेंड साफ दिखता है.वर्ष 2010 में राजद काे 18.84 प्रतिशत मत मिले, जाे भाजपा से भी 2.35 प्रतिशत अधिक थे. इसके बावजूद पार्टी सिर्फ 22 सीटाें पर ही सिमट गई.वर्ष 2015 के विधानसभा चुनाव में राजद के वाेट में 0.49 प्रतिशत की हल्की गिरावट हुई और पार्टी काे 18.35 प्रतिशत मत प्राप्त हुए, लेकिन पार्टी विधायकाें की संख्या बढ़कर 80 हाे गई. इस दाैरान पार्टी महागठबंधन का हिस्सा थी और राजद नीतीश कुमार के नेतृत्व में चुनाव में उतरी थी.वहीं वर्ष 2020 के विधानसभा चुनाव में राजद काे पिछले विधानसभा चुनाव की तुलना में लगभग 5 प्रतिशत अधिक मत मिले और इस तरह पार्टी ने 23.45 प्रतिशत मताें पर अपना कब्जा किया.