इन दिनाें आठवें वेतन आयाेग काे लेकर देश में हलचल तेज है. इसके ‘टर्म ऑफ रेफरेंस’, यानी आयाेग के कामकाज की शर्तें और सीमाएं बताने वाले दस्तावेज जारी कर दिए गए हैं. मगर, आराेप यह भी लग रहे हैं कि सातवें और आठवें वेतन आयाेग की शर्ताें में अंतर है, जिसके कारण 69 लाख पेंशनभाेगी इस प्रक्रिया से बाहर हाे गए हैं.हालांकि, एक बहस आयाेग की सिफारिशाें का देश के श्रम-बल और यहां की आर्थिकी पर पड़ने वाले असर काे लेकर भी चल रही है. यह सच है कि तकरीबन हर दस साल पर वेतन आयाेग का गठन किया जाता है, क्योंकि सरकार मानती है कि अगर महंगाई के हिसाब से तनख्वाह में बढ़ाेतरी न हाे, ताे कर्मचारियाें के जीवन -स्तर में गिरावट आती है. यह एक अच्छी साेच है. मगर ऐसी सिफारिशें सरकारी खजाने पर बाेझ भी बढ़ाती हैं. संभवत: इसीलिए, इस बार आयाेग के सामने यह शर्त रखी गई है कि वह ऐसी सिफारिशें न दे, जिनसे सरकार का आर्थिक घाटा बढ़ जाए.
सुखद यह है कि अपने यहां राजस्व खर्च (वेतन आदि पर सरकार का खर्च) बहुत अधिक नहीं है. यह कुल बजट खर्च का औसतन सात प्रतिशत है, फिर, तमाम सरकारी खर्च गैर-उत्पादक नहीं माने जाते. मसलन, रेलवे, डाक और दूरसंचार आदि अनिवार्य सेवाएं हैं, इसलिए यहां वेतन पर जाे खर्च हाेता है, वह उत्पादक हाेते हैं. पुलिस और सुरक्षा कर्मियाें पर किया जाने वाला खर्च भी अनिवार्य है.इसका मतलब है कि दफ्तराें में कथित ‘बाबूओं’ की संख्या ज्यादा नहीं है. इसीलिए, अगर वेतन आयाेग सिफारिशें करता भी है, ताे सरकार पर उत्पादक खर्च का दबाव बढ़ेगा, गैर-उत्पादक खर्च का ज्यादा नहीं.फिर, भारत के सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में सार्वजनिक क्षेत्र की हिस्सेदारी 29.12 प्रतिशत है, इस कारण कुल वेतन में सरकार क्षेत्र का याेगदान 39 प्रतिशत है. यह दूसरे देशाें की तुलना में काफी कम है. मसलन, जीडीपी में सरकारी क्षेत्र की हिस्सेदारी अमेरिका में 36.28 प्रतिशत है, फ्रांस में ताे 56.99 प्रतिशत और जापान में 41.16 प्रतिशत.
इसका अर्थ है कि अन्य देशाें में हर एक लाख आबादी पर सरकारी कर्मचारियाें की संख्या भारत की तुलना में काफी ज्यादा है. भारत में करीब 1.8 कराेड़ सरकारी कर्मचारी हैं, जाे कुल श्रमबल का 3.5 प्रतिशत हिस्सा हैं. इसके बरअ्नस संगठित कार्यबल का आधा हिस्सा निजी क्षेत्र में काम करता है, जहां वेतन आयाेग की सिफारिशें पराेक्ष रूप से असर डालती हैं.देखा जाए, ताे यहीं वह मुकाम है, जहां वेतन आयाेग काे लेकर संगठित क्षेत्र बनाम असंगठित क्षेत्र की बहस खड़ी की जाती है. यही तर्क दिया जाता है कि असंगठित क्षेत्र काे नुकसान हाे रहा है, क्योंकि संगठित क्षेत्र में वेतन अधिक है.चूंकि निजी क्षेत्र की मंशा अधिक से अधिक मुनाफा कमाने की हाेती है, इसलिए यहां कर्मचारियाें पर कई तरह के दबाव हाेते हैं. हालांकि, इसकी भरपाई वेतन-वृद्धि से करने की काेशिश भी की जाती है, जैसे-ज्यादा कर्मचारियाें के बजाय कम कर्मियाें की नियु्नित करके उनकाे सामान्य से अधिक तनख्याह देना.
साथ ही, नियमित कर्मचारियाें की जगह अनुबंध पर कामगार भी रखे जाते हैं. मगर इस कारण निजी क्षेत्र में असमानता भी काफी ज्यादा बढ़ गई है.इससे पार पाना बहुत आवश्यक है, जिसके लिए जरूरी है कि हरेक कर्मचारी काे कम से कम जीवन गुजारने लायक वेतन मिले. और, यह तब हाेगा, जब उसके पास काम हाेगा, क्योंकि राेजगार की कमी की वजह से ही असंगठित क्षेत्र के कर्मी अपने लिए बेहतर वेतन की मांग नहीं कर पाते, जबकि सरकारी कर्मियाें के पास अपनी मांग पर जाेर देने के लिए धरना या हड़ताल जैसे विकल्प हाेते हैं.वेतन आयाेग का एक असर अर्थव्यवस्था पर यह भी हाेता है कि अचानक उसमें मांग बढ़ जाती है. मुझे याद है, वर्ष 2006-07 में जब छठे वेतन आयाेग की सिफारिशें लागू हुई थीं, तब शिक्षकाें काे तीन-चार लाख रुपये अतिर्नित मिल गए थे, जिससे उन्हाेंने कई तरह (कार, टीवी आदि) की खरीदारी की थी. इसी तरह की खरीदारी आठवें वेतन आयाेग की सिफारिशाें के लागू हाेने के बाद भी संभव है.
हालांकि, इस लाभ काे बनाए रखने के लिए असंगठित क्षेत्र के मुलाजिमाें का ध्यान रखना जरूरी है, क्योंकि जीवनस्तर में असमानता हाेने के कारण निजी क्षेत्र की तरफ से बाजार में मांग कम बढ़ती है, जिससे कुछ दिनाें के बाद ही संगठित क्षेत्र की बढ़ी हुई मांग पूर्ववत स्तर पर आ जाती है. इतना ही नहीं, मांग बढ़ते ही कंपनियां अपने उत्पादाें के दाम बढ़ा देती हैं, जिससे महंगाई में इजाफा हाेता है. साल 2006-07 में भी ऐसा ही हुआ था.बेशक, तनख्वाह बढ़ने से कुछ लाेगाें के हाथाें में पैसे आ जाते हैं और बाजार में नकदी बढ़ जाती है, लेकिन केंद्रीय बजट में घाटा भी बढ़ जाता है. इससे बचने के लिए काले धन की व्यवस्था पर दबिश एक विकल्प हाे सकता है.दरअसल, प्रत्यक्ष कर जीडीपी का कमाेबेश 6.5 प्रतिशत है. अगर काला धन का काराेबार कम हाे जा, ताे यह हिस्सेदारी बढ़कर 15-16 प्रतिशत हाे सकती है.
-अरुण कुमार