व्यक्ति है महत्वाकांक्षा के ज्वर से ग्रस्त. प्रत्येक कुछ हाेना चाहता है ! और इस कुछ हाेने की दाैड़ में वह भूल ही जाता है उसे जाे कि वह है ! और आश्चर्य ताे यह है कि प्रत्येक केवल वही हाे सकता है जाे वह है. स्वयं के अतिरिक्त और अन्यथा हाेना असंभव है. क्याेंकि जाे बीज में नहीं है वह वृक्ष में कैसे हाे सकता है ? लेकिन प्रत्येक वही हाेने की दाैड़ में है जाे वह नहीं है. इससे एक ज्वरग्रस्त जीवन पैदा हाेता है जाे कि अनिवार्यत: हिंसा और विध्वंस में ले जाता है.व्यक्ति जाे बीजत: हाेता है, उसके विकास में न ताे दाैड़ हाेती है और न ज्वर हाेता है और न विक्षिप्तता हाेती है.उसमें ताे एक शांत और माैन और अदृश्य विकास हाेता है. उसमें ताे जाे गति हाेती है उसकी पगध्वनियां भी नहीं सुनाई पड़ती हैं.लेकिन व्यक्ति जाे नहीं है उसके हाेने में शाेरगुल ताे बहुत हाेता है और हाेता कुछ भी नहीं है. यह शाेरगुल, यह संघर्ष, यह तनाव, यह अशांति पैदा हाेती है प्रतिस्पर्धा से.
व्यक्ति जाे है, वही हाेने में काेई प्रतिस्पर्धा नहीं हाेतै. वह हाेता है बस अपने में, अन्य की तुलना में नहीं. वैसे विकास में अन्य की काेई प्रतिभा ही नहीं हाेती है. इसलिए चित्त कलह से मुक्त शांत गति करता है.शक्ति के संघर्ष में, स्पर्धा में हाेनेवाला अपव्यय बचता है और व्यक्ति शक्ति का संरक्षित सराेवर बन जाता है.शक्ति का, ऊर्जा का यह शांत संचय जीवन काे एक ऐसा गत्यात्मक रूप देता है, जिसमें कि गति ताे हाेती है पूर्ण लेकिन घर्षण शून्यहाेता है. लेकिन वहां अन्य की तुलना में जीता है, वहां ताे वह जीता ही नहीं है.जीवन ताे है स्वयं में, वह अन्य में नहीं है. अन्य की तुलना में है ईर्ष्या, क्राेध, हिंसा- और ये जीवन नहीं हैं, यह ताे है मृत्यु. इन मृत्युओं में व्यक्ति जीता हाे ताे जगत जैसा कुरूप हाे गया है, वैसा हाेना अनिवार्य ही है.
और िफर जब सब भांति की महत्वाकांक्षाओं और प्रतिस्पर्धाओं में जीने बाद भी आनंद के द्वार नहीं खुलते हैं और दुख का नर्क और गहरे से गहरा हाेता जाता है ताे व्यक्ति इस विफलता और विषाद में सारे जगत से ही प्रतिशाेध लेने लगता है.वह हाे जाता है विध्वंसक. वह, जाे स्वयं काे सृजन नहीं कर पाया है, उसके प्रतिशाेध में अन्याें का विध्वंस करने लगता है. आत्मसृजन का अभाव विध्वंस और हिंसा बन जाता है.इसलिए मैं कहता हूं कि महत्वाकांक्षा के आधार पर खड़ा जगत कभी भी अहिंसक नहीं हाे सकता है, िफर चाहे यह महत्वाकांक्षा संसार की हाे या माेक्ष की. जहां महत्वाकांक्षा है, वहां हिंसा है वस्तुत: ताे महत्वाकांक्षा ही हिंसा है. और विज्ञान ने महत्वाकांक्षी मनुष्य के हाथाें में असीम शक्ति दे दी है. अब यदि धर्म ने मनुष्य के चित्त से महत्वाकांक्षा न छीनी ताे विनाश सुनिश्चित है.