कनाडा के चुनाव परिणामाें में भले ही लिबरल पार्टी काे बहुमत नहीं मिल सका है, मगर वह विजेता बनकर उभरी है. इसके नेता और माैजूदा प्रधानमंत्री कार्नी मूल रूप से राजनेता नहीं हैं, बल्कि उनकी पहचान एक अर्थशास्त्री की रही है. बैंक ऑफ कनाडा के गवर्नर के रूप में उनका कार्यकाल आज भी लाेग याद करते हैं. उनका राजनीतिक जीवन मार्च, 2025 में अचानक ही शुरू हुआ, जब तत्कालीन प्रधानमंत्री जस्टिन ट्रूडाे ने लिबरल पार्टी की गिरती लाेकप्रियता काे देखते हुए पद छाेड़ने की घाेषणा की थी.
उस व्नत ताे कार्नी संसद सदस्य भी नहीं थे.चूंकि आम चुनाव करीब था, इसलिए यही माना गया कि लिबरल पार्टी काे जिताने की एक असंभव-सी जिम्मेदारी कार्नी के कंधाें पर डाल दी गई है. मगर चुनाव नतीजाें काे देखकर साफ है कि कार्नी यह जिम्मा निभाने में सफल रहे हैं.
इस चुनाव के कुछ संकेत बिल्कुल स्पष्ट हैं. मतदान से पहले कंजर्वेटिव काे इस सेंट्रल लेफ्ट पार्टी पर बढ़त हासिल थी.चुनाव-पूर्व सर्वेक्षण मुनादी कर रहे थे कि लिबरल पार्टी एक बड़ी हार की ओर बढ़ रही है. मगर जैसे-जैसे चुनाव करीब आते गए, रणनीतिक चूक कंजर्वेटिव पर भारी पड़ती गई. इस बार कंजर्वेटिव पार्टी का मत प्रतिशत जरूर बढ़ा है, लेकिन वामपंथी रुझान वाले मतदाताओं ने संभवत: इकट्ठे हाेकर लिबरल काे वाेट दिया है. यही कारण है कि कंजर्वेटिव नेता पियरे पाेलीवरे ने हार की समीक्षा करने की बात कही है. वैसे, कार्नी की इस जीत में अमेरिकी राष्ट्रपति डाेनाल्ड ट्रंप का भी हाथ माना जाएगा, जिन्हाेंने कनाडा काे 51वां अमेरिकी राज्य बनाने की मुहिम चलाई.
इसका पूरा फायदा लिबरल पार्टी काे मिला है. चूंकि अमेरिकाकी नई टैरिफ नीति से वैश्विक अर्थव्यवस्था में हलचल मची है, इसलिए माना यह भी जा रहा है कि पूर्व में आर्थिक अस्थिरता से जूझने का जज्बा दिखाने के कारण कार्नी पर लाेगाें ने भराेसा किया है.इस चुनाव में ख़ालिस्तानी समर्थकाें की हार का संदेश काफी गहरा है और यकीनन भारत के अनुकूल भी. ख़ालिस्तान समर्थक न्यू डेमाेक्रेटिक पार्टी काे जबर्दस्त नुकसान हुआ है. उसके नेता जगमीत सिंह अपनी सीट तक नहीं बचा पाए हैं. पिछले चुनाव में इस पार्टी ने 24 सीटाें पर सफलता हासिल की थी और जस्टिन ट्रूडाे की अल्पमत सरकार के लिए बैशाखी का काम किया था. मगर इस बार 343 सीटाें पर चुनाव लड़ने के बावजूद यह संसद में मान्य पार्टी का दर्जा बनाए रखने के लिए जरूरी 12 सीटें भी नहीं जीत सकी है.
जगमीत का चुनाव हारना और एनडीपी का मत-प्रतिशत गिरना दर्शाता है कि ख़ालिस्तानी गतिविधियाें काे कनाडा के मतदाताओं ने नकार दिया है.कनाडा में भारतीय मूल के लाेगाें की संख्या 16 लाख के करीब है और कुल आबादी में इनकी हिस्सेदारी लगभग चार प्रतिशत मानी जाती है. इनमें भी सिख आबादी काफी अधिक है और कहा जाता है कि कुल जनसंख्या में इनकी हिस्सेदारी दाे प्रतिशत तक हाे सकती है. ऐसे में, राजनीतिक रूप से मुखर रहने वाला यह समुदाय अगर एनडीपी के साथ नहीं गया है, ताे यह साफ है कि अतिवादी विचाराें का बढ़-चढ़कर समर्थन करना एनडीपी के लिए भारी पड़ा है. नजीजनत, आठ साल तक इस पार्टी के नेता रहे जगमीत सिंह काे अपना पद भी छाेड़ना पड़ा है.
निस्संदेह, भारत के लिए सुकूनदेह तस्वीर है. ट्रूडाे सरकार में जिस तरह से ख़ालिस्तान समर्थकाें की गतिविधियाें में इजाफा हुआ, वह खतरनाक रुख लेता जा रहा था. यहां तक कि जस्टिन ट्रूडाे ने इसके कारण भारत के साथ कनाडा के पारंपरिक रिश्ते भी दांव पर लगा दिए थे. वास्तव में, दाेनाें देशाें के बीच संबंध 2023 से खराब हाेने लगे, जब ट्रूडाे ने ख़ालिस्तान समर्थक हरदीप सिंह निज्जर की हत्या में कथित भारतीय एजेंट के शामिल हाेने का आराेप मढ़ा. इस पर भारत ने सख्त ऐतराज जताया और कड़ी कार्रवाई करते हुए कनाडा के छह राजनयिकाें काे निकाल दिया, साथ ही कनाडा से अपने उच्चायु्नत व राजनयिकाें काे वापस बुला लिया. जाहिर है, इसका असर कूटनीतिक ही नहीं, दाेनाें देशाें के व्यापारिक संबंधाें पर भी पड़ा. दुखद यह है कि भारत द्वारा बार-बार आगाह करने के बावजूद ट्रूडाे ने अपनी नीति नहीं बदली.
नतीजतन, ट्रूडाे की लाेकप्रियता काफी तेजी से गिरी और बाद में उन्हें अपने पद से भी हटना पड़ा. इस लिहाज से देखें,ताे मार्क कार्नी का आपसी भराेसे काे मजबूत करने की पहल करने संबंधी बयान उम्मीदाें से भरा है. कार्नी मानते हैं कि भले ही कनाडा-भारत के रिश्ताें में थाेड़ी दूरियां आ गई हैं, लेकिन ओटावा काे नई दिल्ली की जरूरत है, विशेषकर आर्थिक व काराेबारी क्षेत्र में. यही कारण है कि भारत के साथ व्यापक-आर्थिक भागीदारी समझाैता पर आगे बढ़ने के कयास लगाए जाने लगे हैं. प्रधानमंत्री नरेंद्र माेदी द्वारा भेजे गए शुभकामना-संदेश में इसका स्वागत किया गया है. प्रधानमंत्री ने यह उम्मीद भी जताई है कि भारत और कनाडा चूंकि अपने लाेकतांत्रिक मूल्य व प्रतिबद्धताएं साझा करते हैं, इसलिए आपसी तनाव के दाैर संभवत: अब खत्म हाेने वाले हैं.
अमेरिका के साथ जिस तरह से उसके रिश्ते बिगड़े हैं, कनाडा काे अन्य देशाें के साथ अपने संबंध बेहतर बनाने ही हाेंगे.लिहाजा, भारत के साथ रिश्ताें में नई गरमाहट आने की पूरी संभावना है. यही वजह है कि भारत उम्मीद जता रहा है कि कनाडा में ख़ालिस्तानियाें के दिन अब लद सकते हैं. उधर, कनाडा की भी यह अपेक्षा हाेगी कि भारत आर्थिक मुद्दाें काे तवज्जाे देगा और जिस तरह से पुराने मुद्दे उठे हैं, उनका समाधान तय प्रक्रियाओं के तहत ही किया जाएगा. कार्नी शायद ही चाहेंगे कि ट्रूडाे का दाैर दाेहराया जाए.यहां कनाडा-अमेरिका रिश्ते की चर्चा भी लाजिमी है. कार्नी ने जीत के बाद कहा है कि अमेरिका कनाडा की भूमि और संसाधनाें पर कब्जा करना चाहता है. मगर उन्हाेंने ट्रंप के व्यापार-युद्ध और कनाडा काे अपने देश में मिलाने की मंशा के खिलाफ लड़ने का भी आह्वान किया है.
- हर्ष वी पंत