हमारे देश में अंगदान काे लेकर भ्रांतियां बहुत हैं?

01 Jul 2025 17:19:02
 
 

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जयपुर का सवाई मान सिंह अस्पताल. यहां छियालीस वर्षीय गुड्डी भर्ती थी. गंभीर बीमारी के कारण, उसके दाेनाें गुर्दे खराब हाे गए थे. वह डायलिसिस पर थी. लेकिन एक हद के बाद डायलिसिस भी काम करना बंद कर देता है.उसकी हालत बिगड़ रही थी. इसलिए गुड्डी के लिए गुर्दे का प्रत्याराेपण जरूरी था. डाॅक्टर ऐसे दानदाता काे ढूंढ़ रहे थे, जिससे गुड्डी का ब्लड ग्रुप मिलता हाे. साथ ही वह स्वस्थ भी हाे. अपने देश में आसानी से अंगदान करने वाले मिलते भी नहीं. गुड्डी की देखभाल करने के लिए वहां उसकी चाैरासी वर्षीय मां बुधाे देवी भी माैजूद रहती थीं. जब उन्हें इस बात का पता चला, ताे उन्हाेंने डाॅक्टराें से प्रार्थना की कि वह अपनी बेटी काे गुर्दा दान करना चाहती हैं. लेकिन उनकी उम्र आड़े आ रही थी. आमताैर पर माना जाता है कि अंगदान देने वाले की अधिकतम उम्र, साठ से पैंसठ वर्ष के बीच में ही हाे.
 
लेकिन बुधाे देवी डाॅक्टराें से आग्रह करती रहीं. डाॅक्टराें ने जब उनके विभिन्न परीक्षण किए, ताे वह स्वस्थ निकलीं. उन्हें काेई गंभीर बीमारी भी नहीं थी. यही नहीं, उनका ब्लड ग्रुप भी गुड्डी से मिल गया.शुरुआती ऊहापाेह और मां बुधाे देवी के आग्रह काे देखते हुए डाॅक्टराें ने इस चुनाैती काे स्वीकार किया. फिर बुधाे देवी का गुर्दा निकालकर, उनकी बेटी काे प्रत्याराेपित कर दिया. अब मां- बेटी दाेनाें स्वस्थ हैं. आखिर एक मां का अपनी बेटी काे इससे बड़ा उपहार क्या हाे सकता है. उन्हाेंने इसकी मिसाल कायम की और बेटी का जीवन बचाया. डाॅक्टराें की चेतावनी के बावजूद, अपनी बड़ी उम्र के खतराें की भी परवाह नहीं की. जब बुधाे देवी से इस बारे में पूछा गया, ताे उन्हाेंने कहा कि उन्हें फैसला लेने में न काेई दिक्कत हुई, न डर लगा. उन्हाेंने यह भी कहा कि वह ताे अपनी उम्र जी चुकीं.
 
यदि उनके अंग दान से उनके किसी बच्चे काे जीवन मिल सकता है, वह दर्द से मु्नत हाे सकता है, ताे वह ऐसा क्याें न करें. उन्हाेंने यह भी बताया कि आज तक वह कभी बीमार नहीं पड़ी हैं. इस पीढ़ी की महिलाओं ने अथक परिश्रम किया है. इसी का कारण है कि बीमारियां उनके शरीर में घर नहीं बनाती हैं. वर्ना ताे इन दिनाें छाेटीछाेटी उम्र में ही बहुत- सी लड़कियां और महिलाएं गंभीर राेगाें का शिकार हाे रही हैं. जीवन में जितना मशीनीकरण बढ़ा है, शारीरिक श्रम उतना ही घटा है. इसीलिए बीमारियां जल्दी दस्तक देने लगती हैं.एक मां के इस वक्तव्य ने झकझाेर कर रख दिया.इतना बड़ा त्याग, जिसमें जान भी जा सकती थी, इसकी काेई परवाह नहीं की. इस मां काे चिंता इस बात की थी कि कैसे भी वह अपनी बेटी का जीवन बचा सकें. ऐसी मां काे सलाम है.
 
आमताैर पर ताे हमारे समाज में कुछ इस तरह की अवधारणा कायम है कि माता-पिता अपनी बेटियाें के जीवन पर काेई ध्यान नहीं देते. बुधाे देवी ने बेटी बचाओ अभियान के बारे में हाे सकता है, सुना हाे, न सुना हाे, लेकिन उन्हाेंने आगे बढ़कर अपने कर्तव्य का निर्वाहन किया. कायदे से ताे इस मां काे बड़े से बड़ा पुरस्कार भी कम पड़ जाए. वह न ताे बहुत धनवान हैं, न उन्हाेंने बेटियाें के अधिकाराें के बारे में कुछ पढ़ा हाेगा. लेकिन ऐसी मांएं हमारे समाज में काेई अजूबा भी नहीं, जाे अपने बच्चाें के लिए जान की बाजी लगा देती हैं. सवाई मानसिंह अस्पताल के वे डाॅक्टर, जाे इस आपरेशन से जुड़े थे, बुधाे देवी की मजबूत इच्छाशक्ति की तारीफ कर रहे हैं.उनका कहना है कि यह एक मां का प्यार ताे है ही, उन लाेगाें के लिए भी मिसाल है, जाे अंगदान करना नहीं चाहते. शायद इस उदाहरण से अन्य लाेगाें काे प्रेरणा मिले.
 
बुधाे देवी काे तीन दिन बाद ही अस्पताल से छुट्टी दे दी गई थी.गुर्दा प्रत्याराेपण से जुड़े तीन मामलाें काे यह लेखिका भी जानती है. दिल्ली विश्वविद्यालय की एक प्राध्यापिका के भी दाेनाें गुर्दे खराब हाे गए थे. तब भी उनकी मां ने गुर्दा दान किया था. एक दूसरे मामले में दाे बहनें थीं. दाेनाें ही अविवाहित. अचानक बड़ी बहन की तबीयत खराब रहने लगी. डाॅक्टराें ने बताया कि उसके दाेनाें गुर्दे खराब हाे गए हैं. बहुत दिनाें तक डायलिसिस भी हुई लेकिन बड़ी बहन की तबीयत बिगड़ती गई्. तब उसकी छाेटी बहन ने उसे अपना गुर्दा दान करने का फैसला किया. बाद में जब उसके किसी रिश्तेदार ने कहा कि तुम्हारे सामने ताे जिंदगी पड़ी थी. ऐसा क्याें किया, ताे छाेटी बहन ने कहा- मेरी बहन के सामने भी ताे जिंदगी पड़ी थी. क्या हाे गया जाे उसे गुर्दा दे दिया. अब हम दाेनाें एक-एक गुर्दे से ही काम चला लेंगे.
 
कम से कम मेरी बहन का साथ ताे रहेगा. ये दाेनाें घटनाएं दशकाें पहले की हैं. तीसरी घटना कुछ साल पहले की है.दूरदर्शन में काम करने के दिनाें में एक महिला ने अपनी ननद का किस्सा सुनाया. बताया कि उसकी ननद काे पतली दिखने का बड़ा शाैक था. इसलिए वह कुछ खाती ही नहीं थी. अन्न ताे बिल्कुल नहीं. इससे उसके गुर्दे सिकुड़ गए.खराब हाे गए. जान बचाने के लिए प्रत्याराेपण जरूरी था.उसके पिता का ब्लड ग्रुप भी मिल गया. वह स्वस्थ भी थे.लेकिन जिस दिन गुर्दा प्रत्याराेपण का आपरेशन हाेना था, उस दिन, वह अस्पताल छाेड़कर भाग निकले. बहुत दिनाें तक घर वापस नहीं आए. और उस लड़की की जान नहीं बचाई जा सकी.हमारे देश में अंगदान काे लेकर भ्रांतियां भी बहुत हैं.
 
इन दिनाें बहुत से अस्पतालाें में ऐसे काउंसलर माैजूद हाेते हैं, जाे निधन की स्थिति में घर वालाें काे समझाते हैं कि वे मृत व्यक्ति के अंग दान कर दें. इससे वह हमेशा दूसराें के भीतर जीवित रहेगा, या रहेगी. कई बार ताे ऐसा हाेता है कि काेई दिल दिल्ली में मिला और उसकी जरूरत चेन्नई में है. ऐसे में ग्रीन काॅरिडाेर बनाकर जल्दी से जल्दी अंग काे जरूरतमंद के पास पहुंचाया जाता है. आमताैर पर आंखाें के काॅर्निया, लिवर, गुर्दे, दिल आदि दान किए जाते हैं.डायबिटीज के वे मरीज जाे जीवन भर के लिए इंसुलिन पर निर्भर हाेते हैं, क्याेंकि उनका अग्नाशय या पैन्क्रियाज इंसुलिन नहीं बनाता. इस डायबिटीज काे टाइप वन डायबिटीज कहा जाता है. जाे आमताैर पर बाल्यावस्था या किशाेरावस्था में हमला बाेलती है और कभी ठीक नहीं हाेती. पहले अपने देश में टाइप वन डायबिटीज के बहुत कम मामले हाेते थे.
. - क्षमा शमा
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