हम एक असुरक्षित दुनिया में जी रहे हैं? मृत्यु ताे जीवन का सत्य है, लेकिन ्नया हमें इस असुरक्षा के साथ लगातार जीना हाेगा कि जीवन और मृत्यु में, मृत्यु ही ज्यादा निश्चित हाेती जा रही है? नहीं ताे, किसने साेचा था कि श्रीनगर के एयर टर्बुलेंस के भयावह अनुभव के बाद एक इतना बड़ा एयर क्रैश हाे जाएगा और देखते ही देखते एक काे छाेड़ सभी यात्राें माैन हाे जाएंगे. आखिर यह दुनिया क्यों इतनी असुरक्षित हाेती जा रही है? हर दूसरे दिन एक पुल गिर जाता है या बरसात में कूलर से भी करंट लग जाता है.
ऐसे में जाे बच्चे बड़े हाे रहे हैं, उनकी मनाेस्थिति का ्नया? ्नया वे ऐसी अनिश्चितता से कुछ ज्यादा भयभीत नहीं महसूस करेंगे? और उनके माता-पिता इस असुरक्षित हाेती हुई दुनिया के लेकर उन्हें आखिर ्नया सीख देंगे? यह कि उन्हें हवाई यात्रा से बचना चाहिए या कहीं घूमने से. नहीं ताे काेई पहलगाम जैसी घटना हाे सकती है.
और यह सिखाते-सिखाते युद्ध का सायरन बज जाए, ताे फिर वे माता-पिता और बच्चे ्नया करें? भूख से बिलखते बच्चे, रूस-यूक्रेन का युद्ध, बांग्लादेश-पाकिस्तान की उथल-पुथल में फंसा भारत और फिर तमाम असुरक्षा के बीच माता-पिता अपने बच्चाें काे जीवे का हाैसला कैसे दें? यह कठिन घड़ी है. क्योंकि जीवन कुछ ज्यादा अनिश्चित हाे गया है. और यह उन तमाम माता-पिता के लिए एक चुनाैती है, जहां उन्हें बच्चाें काे सतर्क भी करना है और आगे बढ़ने के लिए प्रेरित भी.बच्चाें की यह एक पीढ़ी पहले ही काेविड की भयावहता और असुरक्षा से रूबरू हाे चुकी है, लेकिन भारत और पाकिस्तान के बीच वर्षाें से चल रहा तनाव एक बहुत मुश्किल पाठ बन चुका है. उस हर छात्र के मन में डर का माहाैल है, जब वह काेई सायरन बजते सुनता है या काेई माेंक ड्रिल की खबर आ जाती है.
उन बच्चाें की आंखाें में स्कूल के माेंक ड्रिल के बाद का खामाेश डर है. और उन बालकाें की पीड़ा का ्नया, जिनके माता-पिता काे देश की रक्षा के लिए सीमा पर बुलाया जाता है. वे ताे की नहीं समझ पाते कि दाे देश वर्षाें से लड़ क्यों रहे हैं और समझें भी कैसे? आखिर दाे देशाें के बीच उलझे हुए इतिहास और संघर्ष के परिणामाें काे समझने के लिए वे अभी बहुत काेमल भी ताे हैं. लेकिन युद्ध और तमाम मृत्यु की घटनाएं उनके बचपन काे बाधित कर रही हैं- उस डर से, अनिश्चितता से, एक ऐसी दुनिया से, जाे अचानक कम सुरक्षित महसूस मालूम हाेती नजर आ रही है. और यह चिंता और घनी हाेती जा रही है. जब उनके माता-पिता खुद काे असहाय महसूस कर रहे हाेते हैं.अपने जीवन से ज्यादा दूसरे के जीवन का महत्व काेविड ने समझाया. आखिर दुनिया ने उस अकेलेपन और उपेक्षा काे भी काेविड के दाैर में झेला है.
अपने शाेध अध्ययन ‘काेविड-19 : पाेस्ट-ट्राॅमेटिक ग्राेथ और तनाव के अनुभव पर सामाजिक संबंध की भूमिका’ में मार्से ला माटाेस, कर्स्टन मैकइवान, मार्टिन कानाेवस्की आदि यह मानते हैं कि काेविड-19 महामारी के दाैरान जाे एक प्रमुख तनाव समझा गया वह था. सामाजिक वियाेग और अकेलेपन की भावना. उनका अध्ययन इस बात की भी पड़ताल करता है कि अकेलेपन और करूणा के अभाव ने किस तरह से लाेगाें के पाेस्ट-ट्राॅमेटिक ग्राेथ और पाेस्ट- ट्राॅमेटिक स्ट्रेस काे प्रभावित किया है.‘काेविड-19 समुदाय, संचार और करुणा,’ यही फियाेना लाेंगमुइर का शाेध पेपर था और यह पेपर उन तरीकाें की जांच करता है, जिनमें ऑस्ट्रेलियाई स्कूल के लीडर्स ने काेविड-19 वैश्विक महामारी से उत्पन्न संकट और अनिश्चितता की स्थितियाें काे समझा और उनका सामना किया.
उनके निष्कर्षाें से यह पता चला कि इन तमाम विद्यालयाें का मुख्य फाेकस संवेदना निर्माण और अपने समुदायाें की भलाई करना था. प्निवता डी जुलुएटा ने अपने अध्ययन में लिखा, ‘करुणा मानव कल्याण के लिए केंद्रीय है, जाे इसे देते हैं और जाे इसे प्राप्त करते हैं, दाेनाें काे ही लाभ हाेता है.’ताे यह जरूरी है कि माता-पिता इस असुरक्षित माहाैल में अपने बच्चाें काे और करुणा और संवेदनशीलता से समझें.उन्हें सुनने की काेशिश करें. अगर वे भयभीत नजर आएं या डर काे व्य्नत करें, ताे उन्हें डरपाेक की संज्ञा न दें. आशा तभी संजाेई जा सकती है, जब स्कूल से पास हाेते ही उन्हें सिर्फ यह न बताया जाए कि कुछेक लाेगाें से ही यह दुनिया चलती है और वे इंजीनियर, डाॅ्नटर, वकील या चार्टेड अकाउंटेंट हाेते हैं. बारहवीं के बाद काेई भी सपना इन ग्रहाें के इतर नहीीं हाेता. काेई उनसे नहीं पूछता कि तुम ्नया बनना चाहते हाे?
सभी गूगल से पूछकर उसे यह बताने में लगे रहते हें कि स्कूल की आजाद दुनिया कुछ नहीं हाेती और न हाेती है कुछ उसकी वह अटेंडेंस वाली पढ़ाई. दुनिया ताे नाैकरी से शुरू हाेकर वहीं समाप्त भी हाे जाती है. लेकिन एक दुनिया स्वस्थ रूप से खुश हाेकर जिंदा रहने की भी हाेती है और उन दुखाें काे महसूस करने के कवच-कुंडल के साथ. अगर स्कूल संग माता-पिता इस बात काे समझेंगे, ताे आने वाली पीढ़ी काे वे उस करुणा और संवेदना से जाेड़ पाएंगे, जाे कहीं न कहीं से उनकाे जीवन की आशा देगी. सिर्फ बच्चाें काे ही नहीं, बल्कि खुद काे भी. अगर ऐसा नहीं हुआ, ताे कल काेई बच्चा हवाई जहाज पर बैठने से डरेगा, और डरेगा उड़ते ड्राेन काे देखकर, कहीं पहाड़ाें पर घूमने जाने से भी डरेगा और ठिठक जाएगा माॅक ड्रिल की खबर और उस सायरन काे सुनकर.
-नंदितेश निलय