“मनुष्य एक भाग्यशाली प्राणी है, वो बोल सकता है. लिख सकता है और सोच भी सकता है. उसके पास ज्ञान है और अज्ञान क्या होता है, यह भी उसे पता है. दुनिया में सबसे बड़ी दौलत अक्ल है. इस दुनिया में सीखने से ज्यादा बड़ी और कोई दौलत नहीं है. सीखना एक सामान्य आदमी को असामान्य बना देता है. जानवर और इंसान में यही बड़ा फर्क है कि जानवर में जानकारी बहुत थोड़ी होती है. उसकी तुलना में आदमी की विशेषता है कि वो अपने ज्ञान में सारी जिंदगी बढ़ोत्तरी करता रहता है. इस मामले में इंसानी दिमाग की क्षमता अनलिमिटेड है. यह ज्ञान ही है जो एक आम आदमी को भी महान आदमी बना देता है. मैंने अपने पिताजी से और अपनी जिंदगी से यही सीखा है कि हर दिन हर किसी से प्यार और नरमी से बात करनी चाहिये.” पुणे के एक बड़े उद्योजक बाबूशेठ अग्रवाल की संपादक श्याम अग्रवाल से बातचीत के कुछ अंश
- बाबूलाल द्वारकाप्रसाद अग्रवाल मो. 7768077817
? आपके शुरुआती जीवन के बारे में बताएं?
- मेरा जन्म पूना का ही है. मैं अपने माता- पिता की इकलौती संतान हूं. क्वाटरगेट के पास ओरनेला हाईस्कूल में मैंने मॅट्रीक तक की पढ़ाई की. उसके बाद नेस वाडिया कॉलेज से बीकॉम की डिग्री ली. मैं स्कूल में हमेशा पैदल आता-जाता था. लेकिन वाडिया कॉलेज में मैं सायकल से जाने लगा था. पूना स्टेशन पर मेरे पिता द्वारकाप्रसाद का ‘अग्रवाल जनरल स्टोअर्स' था. क्योंकि मेरे पिता अकेले थे, इसलिये स्कूल से आने के बाद मैं दुकान पर ही बैठता था. ? पूना में आपका परिवार कहां से और कब आया? - हम लोग राजस्थानी अग्रवाल हैं. राजस्थान में कोटा जिले के पास एक देवली गांव है. मेरे दादाजी बाघमल चंपालाल अग्रवाल 1947 में राजस्थान के देवली गांव से अपने पूरे परिवार को लेकर पूना आ गये थे. यहां दादाजी ने सबसे पहले उस वक्त की फेमस दुकान ‘बन्सीलाल क्लॉथ मार्केट' में कुछ साल नौकरी भी की. ? आपके दादाजी किसके रिफ्रेंस से पूना में आये थे? - महेश ताराचंद के दादाजी भगवानदास और उनके भाई फूलचंदजी पहले से ही पूना में आये हुए थे. उन्हीं की पहचान से मेरे दादा बाघमलजी राजस्थान से पूना आये थे. मेरे दादा-दादी, मेरे पिताजी चार भाई और एक बहन है. सबसे बड़े रामेश्वरदयाल, दो नंबर जगदीशप्रसाद, तीन नंबर द्वारकाप्रसाद, इसके बाद उनकी एक बहन संतरा देवी और पांच नंबर पर नवल किशोर हैं. इनमें से इस वक्त मेरे ताऊ जगदीशप्रसादजी (उम्र 85) हैं और मेरे चाचा नवल किशोर (उम्र 80) हैं. बाकी सबका निधन हो चुका है.
? आपके पिताजी की कुछ यादें बताएं?
- मेरे पिताजी बहुत ही मेहनती आदमी थे. उन्होंने अपने पूरे परिवार के लिए बहुत कुछ किया. उन्होंने अपना-पराया कभी नहीं सोचा. शुरू में मेरे दादाजी, ताऊजी जगदीशप्रसाद और मेरे पिताजी, ये सब पुणे के आसपास के गांव में साप्ताहिक बाजार में या उरूस के मेले में सिर पर गठोडा लेकर कपडा बेचने जाते थे. आळंदी तक सब पैदल जाते थे. ज्यादा गठोडे रहते थे तो कभी-कभी तांगे में भी जाते थे, 5-6 साल सबने यह फेरी का काम किया. फिर सबसे पहले बाघमल चंपालाल की दुकान ली. फिर डेक्कन क्लॉथ स्टोअर जगदीशजी की दुकान ली. इसके बाद मेरे पिताजी द्वारकाप्रसाद ने ‘अग्रवाल जनरल स्टोअर्स' दुकान शुरु की. असल में वो जगह मथुरा लॉज वालों की थी और वहां एक सायकल की दुकान थी. मेरे पिताजी ने पगड़ी देकर वो दुकान ली थी. यह 1957-58 की बात है. जगह के मालिक श्रीनिवासजी और माणिकजी थे. उनको हम 40 रुपए महीना भाडा देते थे. आगे जाकर यह भाडा 200 रुपए और फिर दरमाह 400 रुपए तक हो गया था. अग्रवाल जनरल स्टोअर्स में करीब 36000 आयटम बिकते थे. इस दुकान के कारण ही पूना में हमारे परिवार को लोग जानने लगे थे. मेरे पिताजी का स्वभाव सबसे बहुत प्यार- मोहब्बत का होने के कारण ससून हॉस्पीटल के डॉक्टर-नर्सेस आदि सभी हमारी दुकान पर आते थे. स्टेशन पर उस वक्त तुकाराम शिंदे, प्रभाकर कटारकर, जगन शिंदे, माधव शेट्टी और कन्हैयालाल खंडेलवाल आदि मेरे पिताजी के मित्र परिवार में खास थे.
? आपके पिताजी ने इतनी तरक्की कैसे की?
- स्टेशन पर ‘अग्रवाल जनरल स्टोअर्स' के होते हुए मेरे पिताजी ने शिवाजीनगर में ‘द्वारका होटल' खरीदा, वहीं उन्होंने ‘सुदामा व्हेज रेस्टारेंट' भी चलाया. लेकिन सन 2000 में उन्होंने यह दोनों ही बेच दिये. उसी वक्त पिताजी ने आपटे रोड पर सुरेश तालेडा का रूपम लॉज खरीदा. रूपम को रेन्यूएट करके एक नया शानदार होटल ‘कोरोनेट' बनाया. यह सन 2004 की बात है. इसके चार साल बाद 17 जुलाई 2008 को 70 बरस की उम्र में मेरे पिताजी का निधन हो गया. मेरे लिये यह सबसे मुश्किल घड़ी थी. घर का और बिजनेस का सारा बोझ मुझ पर आ गया. पिताजी की तरह मैंने भी खूब मेहनत करी और वक्त ने भी मेरा साथ दिया. धीरे-धीरे बिजनेस में मैं अच्छा सेट हो गया. आदमी हिम्मत न हारे तो बुरा वक्त भी अच्छे वक्त में बदल जाता है. जो इंसान अपने हाथों से काम करता है, वो मजदूर है. जो अपने हाथों और दिमाग से काम करता है, वो कारीगर है और जो अपने हाथ, अपने दिमाग और अपने दिल से काम करता है, वो एक सफल इंसान है. जब तक आप किसी काम को पूरे डेडीकेशन और मेहनत से नहीं करते, तब तक आप में निपुणता (परफेक्शन) नहीं आती. किसी भी जानवर के इन्सानों जैसे हाथ नहीं होते. इन हाथों के दम पर ही करोड़ों साल पहले इंसान ने पत्थर को मूर्ति बनाना और धरती पर अनाज उगाना सीखा था. मनुष्य जीवन ने हमें यही सिखाया है कि हाथ कुछ ना कुछ बनाने के लिए होते हैं, किसी पर उठाने के लिए नहीं होते. हर आदमी में संकल्प की शक्ति केवल हाथों से ही प्रकट हो सकती है. राज-काज-समाज हमेशा बदलते रहते हैं, लेकिन इंसान का अपने दो हाथों से मेहनत करते रहना कभी नहीं बदलता.
? आपकी शादी कब और कहां हुई?
- मेरी शादी 16 नवंबर 1984 को इन्दौर में हुई थी. पुणे के बड़े उद्योजक ओमप्रकाश चमडिया ने मेरा यह रिश्ता कराया था. मेरी पत्नी वंदना की दो चचेरी बहनें पूना में पहले से ही थी- बीना पवन चमडिया और ज्योति माखन चौधरी. मेरी पत्नी वंदना ही मेरी जिंदगी है उसके लिए मैं कहूंगा कि... तेरे बिना जिंदगी का सफर, सफर नहीं लगता तू है तो डर,डर नहीं लगता तू नहीं है तो घर, घर नहीं लगता.... मेरी पत्नी वंदना का मेरे माता-पिता बहुत लाड करते थे. उसका मुझे हमेशा ही बड़ा सपोर्ट रहता है. आज तक हमारा जरा भी कभी विवाद नहीं हुआ. वंदना हमेशा पोजिटिव रहती है और हमारे पूरे परिवार को साथ लेकर चलती है. हमारी शादी को 41 साल हो चुके हैं. हमारी तीन भाग्यशाली बेटियां हैं. बडी बेटी नंदिनी 39 उम्र की है. वो C. A. है. उसकी शादी पुणे की फेमस् हिंद साडी वालों के रोहन राजूभाई शाह के साथ हुई है. नंदिनी को दो लड़कियां नीतारा और नविका है. मेरी छोटी लड़की तन्वी (उम्र 29) की शादी को पौने दो साल हो गये हैं. उसकी शादी क्रांति वाईन्स वाले चिराग महेन्द्र लुल्ला के साथ हुई है. भगवान की कृपा से मुझे दोनों समधि बहुत अच्छे मिले हैं. मेरी बीच वाली लड़की सुरभि है, वो लंडन के मैंचेस्टर में चाईल्ड सायकेट्रिस्ट में काम कर रही है. उसका ‘रोका' हो चुका है. लड़का बड़ौदा का है, वो फिलहाल इटली में कैंसर रिसर्च में पीएचडी कर रहा है.
?आपका कभी राजस्थान के गांव में जाना होता है क्या?
- हां-हां! मैं आज भी राजस्थान के देवली गांव में हर साल जाता हूं. देवली, जयपूर, अजमेर में जरूर चक्कर लगाता हूं. हर साल ‘श्याम खाटू' के दर्शन करने जाता हूं. ? आपने जिंदगी में कभी बुरा वक्त भी देखा क्या? - हां! जिंदगी में सब कुछ अच्छा ही नहीं होता, बुरा भी होता है. आदमी हमेशा सफल ही नहीं, कभी-कभी असफल भी होता है. मैंने 1975 में बिजनेस करना शुरू किया था. अब 50 साल हो गये हैं. आपटे रोड पर ‘कोरोनेट' होटल सुरू करने के बाद मैंने फातिमानगर वानवडी में ‘कोरोनेट एलीगेंस होटल' शुरू किया था. वो मैंने गोयल गंगा वाले सुभाषजी से चलाने को लिया था. उसमें 40 रूम थे. वो मैंने 2007 में लिया और 2011 में छोड़ दिया. इस तरह यह होटल मुझे चार साल में ही छोड़ना पड़ा. फिर 2008 में मैंने राजस्थान के उदयपुर में अरावली साइलेंट रिसोर्ट चालू किया. उसमें भी मैं फेल रहा और मैंने तीन साल में ही वो छोड़ दिया. इसके बाद मैंने गोवा में भी एक होटल लिया था. वहां का अनुभव बहुत खराब रहा. शुरू करने से पहले ही धमकी मिलने लगी, तो मैंने वो छोड़ दिया. यह सब मैंने अपने कोरोनेट होटल के दम पर ही किया था, लेकिन और कहीं भी मेरा अच्छा अनुभव नहीं रहा.
? बचपन की कोई खास बात?
- हां, बचपन में मुझे पिक्चर देखने का शोक था. राजेश खन्ना की तकरीबन सारी फिल्में मैंने देखी हैं. मैं हमेशा 6 से 9 की पिक्चर देखता था. वो भी पहले आधी पिक्चर और फिर दूसरे दिन बाकी आधी पिक्चर देखता था. श्रीनाथ टॉकीज में दादी के साथ आखिरी पिक्चर ‘कालीचरण' देखी थी. मेरे ताऊ जगदीशप्रसाद का लड़का मेरा कजन ब्रदर श्याम मेरे साथ ही पढ़ता था. उसके साथ मेरी अच्छी जमती थी. आज वो पुणे के बड़े बिल्डर हैं. उनके दोनों लड़के भी उसी लाईन में हैं.
? बिजनेस में या पारिवारिक जीवन में सबसे जरूरी क्या है?
- सबसे जरूरी है खुद में ‘ईगो' को नहीं होने देना. आदमी को ‘ईगो' यानी अहम् से फायदा तो नहीं होता, लेकिन ‘ईगो' के कारण आदमी के पारिवारिक संबंध जरूर बिगड़ जाते हैं और वो खुद को अकेला महसूस करने लगता है. बाप-बेटे और दादा-पोते के भी रिश्ते वैसे नहीं रहते, जैसे रहने चाहिये. आपसी रिश्तों में ‘कडुवाहट' पैदा होने का सबसे बड़ा कारण ‘ईगो' ही है. बिजनेस में भी आदमी का ‘ईगो' हमेशा उसको नुकसान ही पहुंचाता है. आदमी को जीवन में तरक्की करनी है तो उसमें प्यार और विनम्रता का होना जरूरी है.
? राजस्थान से आने के बाद आपका परिवार कहां रहा?
- उस वक्त पुणे के सोमवार पेठ में गोसावीपुरा नाम की एक छोटी सी चाल थी. उस चाल की दो खोली में हमारा सारा परिवार रहता था. मेरा जन्म उसी चाल में हुआ था. उसी चाल के पास ‘गजानन निवास' नाम से भुजबल की बिल्डिंग थी. मेरे दादाजी ने वो बिल्डिंग खरीद ली थी. वो दो मंजिल की बिल्डिंग थी. बिल्डिंग के अगले हिस्से में किराएदार और पिछले हिस्से में हमारा पूरा परिवार रहता था. राजस्थान से पूना आने के बाद हमारे पूरे परिवार में सबसे पहले मेरी माताजी का निधन हो गया था. उन्हें कैंसर हुआ था. सिर्फ 48 की उम्र में ही वो हमें छोड़कर चली गई थीं. मेरे ताऊजी रामेश्वरदयाल को चार बेटे- अशोक, उमेश, सतीश और सुनिल हैं. ये सभी पूना में सेटल्ड है, सिर्फ एक बहन नलीनी राजस्थान के कैकड़ी गांव में है. अशोकजी को सचिन, नवीन और शरद यह तीन बेटे हैं. सचिन और नवीन बिल्डर लाईन में हैं और सबसे छोटा शरद पिंपरीचिंचवड के वाकड में सेटल्ड है. अशोक के छोटे भाई उमेश वडगांव शेरी में रहते हैं. उनको नीतिन, गौरव यह दो बेटे और एक बेटी अर्चना है. तीन नंबर सतीश बिल्डर लाईन में है, उनको एक बेटा आयुष और बेटी आशना है.चौथे नंबर का भाई सुनिल है. यह बाणेर में रहते हैं. इनको दो बेटे सिद्धार्थ और रिषभ हैं, दोनों आर्किटक्ट हैं और बिल्डर लाईन में काम करते हैं. मेरे ताऊजी जगदीशप्रसाद अब 85 बरस के हैं. हमारे परिवार में वो सबसे बडे हैं. उनके दो बेटे हैं एक विजय दूसरा श्याम. विजय को एक बेटा अखिल है और बेटी विधिता है. श्यामजी बिल्डर लाईन में हैं. उनको दो बेटे मोनिष और शुभम हैं. सभी बिल्डर कारोबार में हैं.मेरे ताऊजी को इन दो बेटों के अलावा तीन बेटियां भी हैं-पहली उम्रिला दीनानाथ मोदी, जो हैदराबाद में सेटल्ड है, दूसरी निर्मला शरद आडोकिया, ये मुंबई मलाड़ में और तीसरी सीमा कैलास सराफ, ये भी मुंबई में सेटल्ड हैं. मेरे चाचाजी नवलकिशोर का सोमवार पेठ में ‘वर्षा' होटल था, लेकिन अब यहां आईटी कंपनी है. उनको दो बेटे धीरज और जयेश है, दोनों भाई आईटी सेक्टर में बड़ा काम कर रहे हैं. उनकी एक बेटी वंदना राहूल जैन है.