्नया अब हिमालय पर्वत केवलकिताबाें में ही बचेगा?

13 Aug 2025 13:55:31
 

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हाल ही में उत्तरकाशी जिले के धराली गांव में बादल फटने की भयावह घटना हुई, जिसमें छह लाेगाें की माैत हाे गई और कई अन्य लापता हाे गए. इस आपदा ने एक बार फिर इस प्रश्न काे हमारे सामने ला खड़ा किया है कि ्नया हिमालय जैसे संवेदनशील क्षेत्र जलवायु परिवर्तन और अनियंत्रित विकास का बाेझ झेल सकते हैं. यह हिमालयी परिस्थितिकी तंत्र के असंतुलन की एक गंभीर चेतावनी है.हिंदूकुश हिमालय क्षेत्र आज जलवायु परिवर्तन के सबसे तीव्र प्रभावाें का सामना कर रहा है.आंकड़े बताते हैं कि गंगाेत्री ग्लेशियर हर साल औसतन 34 मीटर पीछे हट रहा है. पिछले 25 वर्षाें में यह लगभग 850 मीटर तक सिकुड़ चुका है. ग्लेशियर पिघलने से एक ओर जहां ग्रीष्म ऋतु में जल की उपलब्धता प्रभावित हाे रही है, वहीं ग्लेशियराें के नीचे बन रही झीलें ग्लेशिय लेक आउटबर्स्ट फ्लड) गंभीर खतरा बन चुकी हैं. संयु्नत राष्ट्र विश्व जल विकास रिपाेर्ट, 2025 के अनुसार, हिमालय क्षेत्र में तेजी से बदलती बर्फ मंडली (क्रायाेस्पीयर) का प्रभाव, नीचे की ओर स्थित समुदायाें पर गंभीर रूप से पड़ेगा,जाे इस पर सीधे ताैर पर निर्भर हैं.
उत्तरकाशी के धराली क्षेत्र में आई आपदा में करीब 36 कराेड़ ्नयूबिक मीटर मलबा और पानी एक साथ नीचे आया. यह ्नलासिक ग्लेशियल लेक आउटबर्स्ट फ्लड की स्थिति है) इसमें सड़कें टूट गईं, संचार बाधित हाे गया और राहत कार्याें में बाधा आई.सेना ने ड्राेन, हेलीकाॅप्टर और रस्सी के सहारे कई लाेगाें काे बचाया, पर आपदा का प्रभाव बहुत व्यापक था.इसके कई कारणाें में मुख्य रूप से भारी बारिश, बादल फटना, और पहाड़ाें का कमजाेर हाेना शामिल है. इसके अलावा, गंगाेत्री घटी में वनाें की कटाई और अनियंत्रित विकास भी स्थिति काे भयावह बनाते हैं. बीते कुछ दशकाें में हिमालयी क्षेत्र में सड़कें, सुरंगे और हाइड्राे-पाॅवर प्राेजे्नट्स तेजी से बन रहे हैं. पहले लाेग पहाड़ियाें की ऊपरी सतह पर गांव बसाते थे, ताकि बाढ़ या भूस्खलन से बच सकलेकिन अब सड़क की पहुंच और आधुनिक जीवनशैली की मांग ने यह पैटर्न उलट दिया है अधिकतर निर्माण नदियाें के किनारे और निचले इलाकाें में किए जा रहे हैं.
बिना भूगर्भीय सर्वेक्षण के पहाड़ाें काे काटा जा रहा है. इससे भूमि की स्थिरता कमजाेर हाे रही है और आपदाओं की आशंका कई गुना बढ़ गई है. हिमालय की निचली सतह पर माैजूद ग्लेशियर जब पिंघल जाता है, ताे उसका मलबा वहीं बना रहता है. बादल फटने की स्थिति में पानी का तेज बहाव अपने साथ ग्लेशियर के मलबे काे भी बहाकर ले आता है और वही तबाही का असली कारण बनता है.मानसून के पैटर्न में बदलाव के चलते अब बारिश की तीव्रत और समय दाेनाें अनिश्चित हाेते जा रहे हैं.पिछले एक दशक में भारत में अत्याधिक वर्षा की घटनाएं 20 फीसदी तक बढ़ी हैं. हिमालयी क्षेत्राें के लिए भारी बारिश अधिक खतरनाक है, क्योंकि यहां की ढलानें और अस्थिर मिट्टी जल-दबाव काे झेलने के लिए उपयु्नत नहीं हैं. 2024-25 में हिमालयी राज्याें में बादल फटने, लैंडस्लाइड और बाढ़ की 100 से अधिक घटनाएं दर्ज हुई हैं.
पहाड़ी क्षेत्राें में नदियाें के जलग्रहण क्षेत्र का लगभग 15 फीसदी हिस्सा नदी की मंड़ाई व भूस्खलन से बने मलबे से बनता है,जाे विकास कार्याें के लिए अनुपयु्नत है. हमारे पूर्वजाें ने भी इन स्थलाें पर कभी निर्माण नहीं किया, लेकिन अब काफी अतिक्रमण हाे रहा है. हिमालय में बांध बनाना और सुरंग खाेदना बेहद खतरनाक है, क्योंकि उत्तराखंड और हिमाचल का पहाड़ी इलाका भूगर्भीय रूप से कमजाेर है और भूस्खलन की आशंका हमेशा बनी रहती है. यूराेप के पहाड़ अपेक्षाकृत कम ऊंचे और चट्टानी हैं, जिससे वहां सुरंग निर्माण संभव है, पर हिमालय में यह विनाशकारी हाे सकता है, इसके बावजूद विकास की अंधी दाैड़ और टूरिज्म लाॅबी के दबाव में प्राकृतिक असंतुलन की अनदेखी हाे रही है. प्राकृतिक आपदाओं काे काेई नहीं राेक सकता, लेकिन इससे हाेने वाले भारी नुकसान काे कम करना हमारे हाथ में है.
इसके लिए सरकार और हिमालयी रेंज में रहने वाले लाेगाें काे खुद ही आगे बढ़ना हाेगा. सर्वप्रथम जिन घाेषित कर निर्माण कार्य पूरी तरह से राेका जाए. घटनाओं की पूर्व चेतावनी देने वाले सिस्टम का विकास और स्थानीय प्रशासन काे उनका प्रशिक्षण दिया जाना चाहिए. जाेखिमाें काे लेकर जनता काे जागरूक करना जरूरी है.उत्तराखंड और हिमालय में पर्यटकाें की भीड़ और हादसाें पर नियंत्रण के लिए भूटान माॅडल अपनाने की सिफारिश की गई है. इसमें पर्यटकाें से भी प्रति रात शुल्क लिया जाता है, निजी वाहन की अनुमति नहीं हाेती, स्थानीय टै्नसी, गाइड, तय हाेटल और भाेजन व्यवस्था अनिवार्य हाेती है. इससे पर्यटन सुरक्षित और पर्यावरण-संवेदनशील बन सकता है. संवेदनशील क्षेत्राें की भू-स्थानिक तकनीकाें से पहचान कर इन्हें ‘लाल क्राॅस’ से चिन्हित किया जाना चाहिए, ताकि लाेगाें काे भविष्य की आपदाओं से बचाया जा सके. आपदा जाेखिम न्यूनीकरण में कृत्रिम बुद्धिमत्ता और मशीन लर्निंग की भूमिका लगातार बढ़ रही है.
-विध्यवासिनी पांड
 
 
 
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