सीपी राधाकृष्णन काे उप-राष्ट्रपति पद का उम्मीदवार बनाकर भाजपा ने एक साथ कई संदेश देने की काेशिश की है. इसके निहितार्थ राजनीतिक भी हैं और चुनावी भी. अगर राधाकृष्णन इस प्रतिष्ठित पद पर आसीन हाेते हैं, ताे वहां पहुंचने वाले पिछड़े समुदाय के वह पहले तमिल हाेंगे. उनसे पहले राज्य के दाे उम्मीदवार उप-राष्ट्रपति पद की रेस में उतर चुके हैं, पर वे ब्राह्मण थे. हालांकि, भाजपा की नजर पश्चिमी तमिलनाडु या ‘काेंगुबेल्ट’ के मतदाताओं पर है, जहां से इस चयन के बाद उसे अच्छे वाेट मिलने की उम्मीद है.
राधाकृष्णन साल 1998 और 1999 में काेयंबदूर लाेकसभा क्षेत्र से दाे बार सांसद रह चुके हैंं, हालांकि दाेनाें जीत उन्हें जयललिता के नेतृत्व वाले अन्नाद्रमुक के साथ गठबंधन करने के कारण मिली थी. इसके बाद 2004, 2014 और 2019 के संसदीय चुनावाें में उन्हें हार का सामना करना पड़ा, जिसके बाद 2023 में वह झारखंड के राज्यपाल बनाए गए. हालांकि, एक साल के बाद ही उनकाे महाराष्ट्र भेज दिया गया. उनका सियासी सफर खत्म ही माना जा रहा था कि अचानक रविवार काे उनके नाम का ऐलान कर दिया गया.
राधाकृष्णन 2004 से 2006 के बीच तमिलनाडु के भाजपा अध्यक्ष भी रह चुके हैं और अन्नाद्रमुक के साथ गठबंधन कराने में उन्हाेंने अहम भूमिका निभाई थी. हालांकि, यह साझेदारी बहुत सफल साबित नहीं हुई. वह राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और जनसंघ में भी अपनी जिम्मेदारी निभा चुके हैं. 1970 के दशक में जब भगवा पार्टी जनता पार्टी में शामिल हुई और बार में दाेहरी सदस्यता के मुद्दे पर उससे अलग हाे गई थी, तब उन्हाेंने ही राज्य की राजनीति में सक्रिय भूमिका निभाई थी. फिर भी, वह एक करिश्माई नेता नहीं माने गए. राधाकृष्णन हमेशा शांत, सज्जन और कम बाेलने वाले व्य्नित रहे हैं. किसी बड़े विवाद में भी उनका नाम नहीं आया.
तमिलनाडु की राजनीति में यह एक जगजाहिर तथ्य है कि कमाेबेश सभी राजनीतिक पार्टियाें और नेताओं के साथ उनके अच्छे संबंध रहे हैं, फिर चाहे वह द्रमुक ही क्यों न हाे. उन्हें कभी आक्रामक नेता के रूप में नहीं देखा गया. ऐसे में, लाेग हैरान हैं कि वह उप-राष्ट्रपति पद की रेस में पहुंचे कैसे?
राधाकृष्णन के खाते में बेशक काेई बहुत बड़ी उपलब्धि न हाे, मगर वह ‘सही समय पर सही व्य्नित’ के रूप में राजनीति में ऊपर उठते गए. उनका चयन भाजपा द्वारा दाे विवादास्पद नियु्नितयाें से मिले जख्माें पर मरहम लगाने के रूप में देखा जा रहा है. ये दाेनाें नियु्नितयां हैं- जम्मू-कश्मीर के राज्यपाल के रूप में सत्यपाल मलिक (जिनका पिछले दिनाें निधन हाे गया), और उप-राष्ट्रपति के रूप में जगदीप धनखड़ की. चूंकि धनखड़ के अचानक इस्तीफा देने के कारण ही यह चुनाव हाे रहा है, इसलिए बीते घटनाक्रमाें से सबक लेकर सावधानीपूर्वक ऐसे व्य्नित की तलाश की जा रही थी, जाे इन हालात में मुफीद हाे.
मगर वह काैन-सी वजह है, जिसके कारण राधाकृष्णन का पलड़ा भारी हुआ? उनके परिचिताें के अनुसार, वह प्रधानमंत्री नरेंद्र माेदी के ‘काफी करीब’ हैं. उन्हें आरएसएस की पसंद नहीं माना जाता है और न ही तमिलनाडु की राजनीति में उनका काेई खास दबदबा है. इसके अलावा, हिंदी भाषा पर भी उनकी पकड़ कमजाेर है, जबकि राज्यसभा की कार्यवाही के सुचारू संचालन के लिए यह जरूरी है.
एक आरएसएस नेता ने 2002 की घटना काे याद किया है, जब नरेंद्र माेदी गुजरात के मुख्यमंत्री थे और दंगाें से निपटने के तरीके काे लेकर वह विपक्षी दलाें के निशाने पर थे. यह वही समय था, जब प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने सार्वजनिक रूप से उनकाे ‘राजधर्म’ की याद दिलाई थी. उस व्नत वाजपेयी और पार्टी में नंबर दाे कहे जाने वाले लालकृष्ण आडवाणी के विचार माेदी काे लेकर बिल्कुल विपरीत थे. तब किसी विवाद में पड़ने से बचने के लिए राज्य के कई भाजपा नेताओं ने माेदी से दूरी बना ली थी, लेकिन राधाकृष्णन ने ऐसा नहीं किया. यहां तक कि बताैर सांसद उन्हाेंने गुजरात के मुख्यमंत्री काे अपने निर्वाचन क्षेत्र में एक सार्वजनिक समाराेह काे संबाेधित करने के लिए बुलाया और उनका मान-सम्मान किया. बताते हैं, माेदी इस ‘व्यवहार’ काे कभी नहीं भूले.
राधाकृष्णन अपनी स्पष्टवादिता के कारण भाजपा आलाकमान के बहुत प्रिय रहे हैं. 2024 के संसदीय चुनावाें से पहले, जब पार्टी के तत्कालीन प्रदेश अध्यक्ष के अन्नामलाई से उनका आकलन पूछा गया, ताे उन्हाेंने एक गुलाबी तस्वीर पेश की और कहा, भाजपा कम से कम 10 सीटाें पर जरूर जीत हासिल करेगी. जब ‘सीपी’ (राधाकृष्णन इसी नाम से लाेकप्रिय हैं.) से यही सवाल किया गया, ताे उन्हाेंने एक भी सीट न मिलने का अनुमान लगाया था. नतीजे ने सीपी काे सच साबित किया था. पार्टी के प्रति उनकी निष्ठा तब भी सराही गई, जब जयललिता के शासनकाल में उन्हाेंने अन्नाद्रमुक में शामिल हाेने से इन्कार कर दिया. यह उस समय की बात है, जब भाजपा एक पार्टी के रूप में अपने सबसे निचले स्तर पर थी.
एक बड़ा सवाल यह है कि ्नया राधाकृष्णन का चयन 2026 के विधानसभा चुनाव में भाजपा के पक्ष में रुख माेड़ पाएगा? विश्लेषकाें के मुताबिक, इसकी संभावना कम ही है, क्योंकि वह जिस समुदाय (काेंगुवेल्लालर) से आते हैं, उसका एक मुश्त समर्थन पहले से ही भाजपा काे मिलता रहा है. पूर्व भाजपा अध्यक्ष अन्नामलाई, भाजपा विधायक वनती श्रीनिवासन और गठबंधन सहयाेगी अन्नाद्रमुक के नेता ई- पलानीस्वामी इसी समुदाय से आते हैं.
वक्त राधाकृष्णन की दावेदारी तमिल भावना काे उभार सकती है और विपक्षी दलाें काे उनका समर्थन करने काे मजबूर कर सकती है? राज्य के भाजपा नेताओं ने पहले से ही समर्थन मांगना शुरू कर दिया है.