्नया युद्ध और ग्लाेबल वार्मिंग में काेई रिश्ता भी है?

27 Sep 2025 21:41:47
 
 

thoughts 
 
वर्ष 2024 में पहली बार धरती के औसत तापमान में पूर्व औद्याेगिक स्तर से 1.5 डिग्री सेल्सियस से ज्यादा की वृद्धि हुई, जाे जलवायु संकट की एक महत्वपूर्ण सीमा है.साथ ही, यूक्रेन, गाजा, सूडान और अन्य जगहाें पर प्रमुख तीव्र सैन्य संघर्ष जारी हैं. स्पष्ट है कि अब युद्ध काे जलवायु संकट के साये में समझे जाने की जरूरत हैं.युद्ध और जलवायु परिवर्तन के बीच संबंध जटिल है.
लेकिन, तीन अहम कारणाें की वजह से जलवायु संकट से निपटने के लिए हमें युद्ध के बारे में विचार करते हुए नए ढंग से साेचनाहाेगा, क्योंकि जलवायु परिवर्तन संसाधनाें की कमी और विस्थापन की बढ़ाकर हिंसक संघर्षाें की आशंका बढ़ा सकता है, जबकि संघर्ष स्वयं पर्यावरणीय क्षति काे बढ़ाता है.युद्ध में निहित विनाशकारी क्षमता ने लंबे समय से पर्यावरण काे नुकसान पहुंचाया है.
 
लेकिन, इसके जलवायु संबंधी प्रभावाें के प्रति हम हाल ही में ज्यादा जागरूक हुए हैं. साइंटिस्ट्स फाॅर ग्लाेबल रिस्पांसबिलिटी और द कांन्फ्ल्निट एंड एनवायरन्मेंट ऑब्जरवेटरी द्वारा किए गए एक अध्ययन में अनुमान लगाया है कि दुनिया भर की सेनाओं का कुल कार्बन फुटप्रिंट रूस से भी अधिक है.जिसका वर्तमान में विश्व में चाैथा सबसे बड़ा फुटप्रिंट है.माना जाता है कि अमेरिका का सैन्य उत्सर्जन सबसे ज्यादा है. ब्रिटेन स्थित शाेधकर्ताओं बेंजामिन नीमार्क, ओलिबर बेल्वर और पैट्रिक बिगर के अनुमान बताते हैंं कि अगर अमेरिकी सेना एक देश हाेती, ताे वह दुनिया में ग्रीनहाउस गैसाें का 47 वां सबसे बड़ा उत्सर्जक हाेती. इस हिसाब से वह पेरू और पुर्तगाल के बीच आती. युद्ध जलवायु और ऊर्जा परिवर्तन पर अंतरराष्ट्रीय सहयाेग काे भी खतरे में डाल सकते हैं.
 
उदारहरण के लिए यूक्रेन युद्ध शुरू हाेने के बाद से, आर्कटिक में पश्चिमी देशाें और रूस के बीच वैज्ञानिक सहयाेग टूट गया है. इस वजह से महत्वपूर्ण जलवायु डाटा जुटाने में बाधा आ रही है.कुछ लाेगाें का तर्क है कि जलवायु परिवर्तन दुनिया केउन हिस्साें में हिंसा का खतरा बढ़ा सकता है,जाे पहले से ही खाद्य और जल असुरक्षा, आंतरिक तनाव, खराब शासन और क्षेत्रीय विवादाें से तनावग्रस्त हैं. अन्य शाेधकर्ताओं ने दर्शाया है कि हिंसा में शामिल हाेने या युद्ध में जाने का काेई भी निर्णय हमेशा इंसान लेते हैं, जलवायु नहीं.इस बात का खंडन करना और भी मुश्किल है कि जलवायु संकट के कारण नागरिक आपात स्थितियाें में सहायता के लिए सेनाओं की तैनाती ज्यादा बार हाे रही है.
 
इसमें जंगल की आग से निपटने से लेकर बाढ़ सुरक्षा काे मजबूत करने, निकासी में मदद करने, खाेज और बचाव अभियान चलाने, आपदा के बाद पुनर्वास में मदद करने और मानवीय सहायता पहुंचाने तक की कई गतिविधियां शामिल हैं.जलवायु संकट भविष्य में और अधिक हिंसा और सशस्त्र संघर्ष का कारण बनेगा या नहीं, इसका अनुमान लगाना असंभव है. यदि ऐसा हाेता है, ताे सैन्य बल की अधिक बार तैनाती की जरुरत पड़ सकती है.साथ ही, यदि जलवायु संबंधी आपदाओं की बढ़ती आवृत्ति और तीव्रता से निपटने के लिए सेनाओं पर निर्भर रहा जाता है, ताे उनके संसाधनाें पर और अधिक दबाव पड़ेगा.सरकाराें काे इस बारे में कठिन विकल्पाें का सामना करना पड़ेगा कि किस तरह के कार्याें काे प्राथमिकता देनी चाहिए और ्नया अन्य सामाजिक जरुरताें की कीमत पर सैन्य बजट में वृद्धि की जानी चाहिए.
 
बढ़ते भू-राजनीतिक तनाव और संघर्षाें की संख्याओं में वृद्धि काे देखते हुए असैन्यीकरण की मांग निकट भविष्य में पूरी हाेना मुश्किल लगती है. इससे शाेधकर्ता असमंजस में हैं कि उन्हें इस बात पर पुनर्विचार करना हाेगा. कि सैन्य बल का प्रयाेग किस तरह किया जाए, जबकि दुनिया एक साथ तेजी से बढ़ते जलवायु परिवर्तन के साथ तालमेल बिठाने और जीवाश्म ईंधन पर अपनी गहरी निर्भरता से मु्नित पाने का प्रयास कर रही है.तेजी से बदलती चरम और अप्रत्याशित जलवायु परिस्थितियाें का सामना करने के लिए सैन्य कर्मियाें काे तैयार करने और मूलभूत ढांचे के साथ अनुकूलन बढ़ती चिंता का विषय है. वर्ष 2018 में अमेरिका में आए दाे बड़े तूफानाें ने आठ अरब डाॅलर के सैन्य बुनियादी ढांचे काे तहस-नहस कर दिया था. मेरे खुद के शाेध से पता चला है कि कम से कम ब्रिटेन में कुछ रक्षा अधिकारियाें के बीच इस बात के प्रति जागरुकता बढ़ रही है कि सेनाओं काे इस बारे में सावधानीपूर्वक साेचने की जरुरत है कि वे ऊर्जा परिवर्तन के कारण वैश्विक ऊर्जा परिदृश्य में आने वाले बड़े बदलावाें से कैसे पार पाएंगी.
 
सेनाएं कठिन विकल्प का सामना कर रही हैं. वे या ताे तेजी से कम कार्बन वाली दुनिया में जीवाश्म ईंधन के अंतिम भारी उपयाेगकर्ताओं में से एक बनी रह सकती हैं या उर्जा परिवर्तन का हिस्सा बन सकती हैं, जिसका सैन्य बल के निर्माण,तैनाती और उसे बनाए रखने के तरीके पर महत्वपूर्ण प्रभाव पड़ेगा. 19वीं सदी की शुरुआत में प्रशिया के जनरल कार्ल बाॅन ्नलाॅजवट्ज ने प्रसिद्ध तर्क दिया था कि यद्यपि युद्ध की प्रकृति में कभी परिवर्तन नहीं हाेता, लेकिन इसका चरित्र समय के साथ लगभग निरंतर विकसित हाेता रहता है. यदि हमें यह समझना है कि भविष्य में युद्ध क्यों और कैसे लड़े जाएंगे, इनमें से कुछ युद्धाें काे कैसे टाला या कम विनाशकारी बनाया जा सकता है, ताे इसके लिए जलवायु संकट के पैमाने और पहुंच काे पहचानना आवश्यक हाेगा. -डंकन डेपलेज
 
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